गुरुवार, 17 सितंबर 2009

पालचित्‍तरिया - यात्रा संस्मरण का शेष भाग

रास्ते में चलते हुए डी]एस ने मुझे बताया कि हूर जी जिनकी कब्र हम देख कर आये हैं] वे एमबीसी में सूबेदार मेजर थे। हूर जी] ¼सूर जी-बागड़ी में ‘'स’ को ‘'ह’ उच्चारित किया जाता है) नवीन भाई के दादा थे। पालचित्‍तरिया काण्ड में उन्होंने फौज की एक टुकड़ी का नेतृत्व किया था। वे पालचित्‍तरिया के ही रहने वाले थे। गोलीकाण्ड के बाद उन्होंने सपरिवार गाँव छोड़ दिया और उनका कुटुम्ब-परिवार तब से इस गाँव में रहता है। गाँव छोड़ने के पीछे यह आशंका थी कि मृतकों के परिजन और इलाके के आदिवासी बदले की भावना से हूरजी व उनके परिवार को जान से मार देंगे। अब मेरी समझ में आया कि पालचित्‍तरिया का नाम सुनते ही नवीन भाई के चेहरे पर लज्जा के भाव क्यों उभरे थे और क्यों वे पालचित्‍तरिया चलने से आनाकानी कर रहे थे। ध्यातव्य है कि पालचित्‍तरिया में ‘बहादुरी दिखाने के एवज में सूबेदार मेजर हूरजी को अंग्रेज हुकूमत ने ‘राय बहादुर के खिताब से नवाजा था। हूरजी निनामा गौत्र के आदिवासी थे और सुन्दरा में डामोर खांप के आदिवासी रहते आये हैं। जब हूरजी का परिवार व अन्य कुटुम्बीजन पालचित्‍तरिया से पलायन कर इधर से निकल रहे थे तो सुन्दरा के आदिवासियों ने उन्हें रोक लिया और अपने गाँव में उन्हें शरण दी। कहते हैं, हूरजी ने सुन्दरा गाँव व अन्यत्र भी सेवानिवृति के बाद यह स्पष्टीकरण क्षमायाचना के साथ दिया बताया कि ‘वह फौज में नौकर था। जहाँ कमाण्डेंट का हुकुम मिला, वहां कार्यवाही की। पालचित्‍तरिया में ऐसा होगा इसका उसे इल्म नहीं था। हूरजी के इस तर्क में यद्यपि कोई दम नहीं था किन्तु कहा नहीं जा सकता कि आदिवासियों ने इस तर्क को किस रूप में स्वीकार किया। हूरजी की चर्चा करते हुए अब हम छाणी गाँव पहुँच गये थे। यह बड़ा गाँव है। मिश्रित जातियों की आबादी का कुछ विकसित सा गाँव। मगर आदिवासी गाँव में नहीं रहते। वे तो एकल झोंपडियों में ही बसते हैं और वह भी दूर-दूर टेकरियों पर। छाणी के स्कूल से नीली-खाकी ड्रेस में बच्चे छुट्टी के बाद निकलते हुए मिले। राह में इधर से उधर आती-जाती सवारियों से ओवर क्राउडेड कई जीप मिलीं। तनिक भी संतुलन बिगड़ा कि भयंकर दुर्घटना की पूरी-पूरी संभावना। एक जुलाई को हुई व्यापक बरसात के बाद खेतों में फसल की बुआई की गयी थी। प्रमुख रूप से मक्की की फसल। अभी पौधे बाहर नहीं निकले थे। भीतर ही भीतर जमीन में अंकुरा रहे होंगे। छोटे-छोटे आकार के खेतों में काली और चिकनी मिट्टी। पहाड़ी क्षेत्र में झाड़-झंखाड़ को साफ कर तैयार किये गये ये खेत थे। कृषि-योग्य भूमि का एकदम टोटा। ठिगनी कद-काठी वाले सांवले रंग के आदिवासियों के भीतर अकूत जीवट होता है और इसी तरह इनके छोटे-छोटे क्षेत्रफल वाले खेत भी खूब फलते हैं चूँकि गुजारा तो आखिर इन्हीं से करना है। वनोपज पर इस वर्तमान में आदिवासियों के पुश्तैनी हक-हकूक अब कहाँ। सड़क के दोनों ओर परदेशी आकड़ा और पुश्तैनी थूर के आदमकद पौधे और कुंज। आगे आता है नया गाँव। छोटा कस्बा कह सकते हैं इसे। यहीं स्कूल में शारदा डामोर पढ़ाती है। डी.एस. के संगठन में उसने भी पहले काम किया है। अब तो वह अच्छी गृहणी बन गयी है। डी. एस. उसके सम्पर्क में रहे है। यहां पहुँचते-पहुँचते हमे साढे बारह बज गये थे। स्कूलों की छुट्टियां थोड़ी देर पहले हुई है। डी. एस. शारदा का पता लगाने स्कूल में गये। वह थोड़ी देर में वापस आये और बताया कि ‘‘हम थोड़ा लेट हो गये। वह आधा घण्टा पहले स्कूल से निकल गयी। किसी जीप में बैठकर अपने ससुराल गयी होगी। आप जानते नहीं, उसकी ससुराल चित्तरिया में ही है जहाँ हम जा रहे हैं। वह बहुत होशियार लड़की है। खैर, अब तो घर-गृहस्थी संभालने वाली महिला है। वह हमें वहीं मिल जायेगी। पालचित्‍तरिया में हमें उसके मिल जाने से काफी सुविधा रहेगी। ‘‘ओ. के. , चलो, चलते हैं। -मैनें डी. एस. की बात पर इतना ही कहा। हमारी इण्डिका कार के आगे-आगे एक जीप में कोई तीन दर्जन सवारियां चढ़ी हुई थी। इनमें से दर्जन भर मुश्किल से बैठी होंगी शेष तो लटकने या लद्द-पद्द स्थिति में थी। ‘‘देखो डी.एस., हमारे आगे यह भारत चल रहा है और हम इस समय इण्डिया को बिलाँग कर रहे हैं। - डी. एस. को मेरी साधारण सी बात पहेली लगी। उन्होंने पूछा -‘‘मैं समझा नहीं, भारत और इण्डिया से आपका क्या आशय है। ‘‘देखो भाई, वी आर लिविंग इन टू कंट्रीज इन वन नेशन। वन इज इण्डिया एण्ड अनादर इज भारत। अब इसे यूं समझिये कि हम इण्डिका कार में ड्राईवर सहित तीन प्राणी हैं और इस आगे चल रही जीप की केपेसिटी मुश्किल से नौ सवारियों की है मगर इसमें बैठे हैं करीब तीन दर्जन जीव। तो इण्डिया वालों के लिए स्कोप बहुत हैं और भारत वालों के लिए मामला कुछ ओवर क्राउडेड। क्यूँ है कि नहीं। मेरी विचारणा पर डी. एस. जोर से हँसे। यह बात राजू ने भी सुनी। वह सिर्फ मुस्कुराया। डी. एस. ने कहा - ‘‘बॉस मान गये। ‘हाय अमरीका, वाह अमरीका तो इण्डिया वालों का नारा है और भारतवाले वहीं के वहीं। ‘‘हाँ, तो मैं यही तो कहना चाहता हूँ कि वह जो निजीकरण, वैश्वीकरण बाजारवाद, विज्ञापनवाद, मॉडल्स, पाश्चात्य जीवन शैली, स्पीड मनी, फास्ट लाइफ, मॉडर्निटी आदि सब क्या और किसके लिए है। कुल मिलाकर पूँजी, वर्चस्व, और स्पीड, जिसमें मूल्य-प्रणाली को कोई तवज्जो नहीं। संस्कृति का स्थान अपसंस्कृति ने ले लिया है। हम समझ नहीं पा रहे हैं कि यह जो सब कुछ जैसा हो रहा है, इसमें आम आदमी कहाँ हैं, उसके सरोकारों से किसे क्या वास्ता है, और मीडिया इस सबका वाहक है। ‘‘हाई-टेक मामला है। कंधे उचकाने और कूल्हे मटकाने वालों का जमाना है। भू-मण्डलीकरण के इस दौर में ऐसी ही पीढी फिट हो पायेगी। भारतवाले तो यों ही भीड़ की तरह मरते-खपते रहेंगे। ‘‘डी. एस., मेरा मतलब हाई-टेक को नकारना नहीं है और न ही प्रोग्रेसिव इण्डिया की राह में रोड़े अटकाना, अगर वह सम्पूर्ण देश, जिसमें उक्त भारत भी हो, को रिप्रजेंट करें तो। प्रोग्रेसिव का अर्थ एक वर्ग का वर्चस्व और प्रभुत्व नहीं, प्रत्युत् समस्त राष्ट्र का विकास है। अब जो मैं कह रहा था-इण्डिया एवं भारत के बारे में, तो इन दोनों में तालमेल कैसे हो, यह प्रश्न मेरे दिमाग में है। ‘‘मीणा जी, आप ठीक कह रहे हैं। अब तो कोरपोरेट जगत का जमाना है। एग्रो-सेक्टर भी मल्टीनेशनल्स को दिया जाने वाला है। महानगरों में ‘सेफ इकॉनोमिक जोन आम आदमी से कोई ताल्लुक नहीं रखता। फिर दूर-दराज इन जंगलों में पडे़ आदिवासियों का क्या होगा। ‘‘इन्हें मुख्यधारा में आना ही होगा। ‘‘मुख्यधारा का मतबल है कि यह रोजाना की पगार पर निर्भर रहेंगे। शहरों की ओर पलायन करेंगे। काम न मिला तो भीख मांगेंगे। ‘‘नहीं, आदिवासी भीख नहीं मांग सकते। ‘‘जंगलों से बेदखल होकर और क्या करेंगे। ‘‘नहीं, ऐसा नहीं है। प्रागैतिहासिक काल में तो दुनियां के सभी लोग आदिमानव थे। जब उनके अधिकांश वंशज विकसित हो गये तो आदिवासियों को अपनी खोल से बाहर क्यों नहीं आना चाहिए। इस दरम्यान उदयपुर जिले का सीमान्त पुलिस थाना मुख्यालय का कस्बा पहाड़ा और उसके आगे के गाँव थाणा, आडीवली एवं राणी हमने पार कर लिए। राजस्थान व गुजरात की वाणिज्यिक चैक पोस्ट आ गयी। यहाँ से ईडर साठ कि.मी. था। चैक पोस्ट के कर्मचारियों से पूछने पर पता चला कि चार कि. मी. आगे बायीं तरफ मुड़ने के बाद पालचिंत्‍तरिया आयेगा। यहीं से शुरू हो जाता है-सागोन का जंगल। सागोन के पेड़ों पर बौर आये हुए थे। बीच-बीच में जंगली आकड़ा, टिमरू, तेंदू, खजूर, पलाश, रतनजोत और अन्य पेड़-पौधे नजर आ रहे थे। ‘‘चैक पोस्ट पर बताये अनुसार तिराहे पर हम पहुँचे। वहाँ एक बुजुर्ग बैठा हुआ था। हम कहीं गलत रास्ते न चले जायें, इसलिए डी. एस. ने उस बुजुर्ग से पूछा-‘‘बाबा, केम छो। पालचित्‍तरिया का रास्ता क्या यही है। ‘‘ हाँ, यही है। ‘‘ कितना दूर। ‘‘ बस कोई छः मील के आसपास। ‘‘ अच्छा, शुक्रिया। आदिवासीयों की छितरी-बिखरी बस्ती बालेटा से निकलते ही समतल इलाका दिखायी दिया। सड़क के किनारे रोपे हुए प्रस्‍तर-पट्ट पर लिखा हुआ था - कोडियावाड़ा 2 कि.मी.। ‘‘बॉस, आप देखना कि जहाँ भी समतलीय भू-क्षेत्र होगा, वहाँ गैर आदिवासियों की बसावट मिलेगी और पक्के मकान होंगे। अब आगे जो समतलीय और खेती-बाड़ी की दृष्टि से जो उपजाऊ इलाका दिख रहा है, निश्चित रूप से गैर आदिवासी किसान, जैसे पटेल या फिर व्यापार व नौकरी-पेशा से जुड़े ब्राह्मण-बनियों की बस्ती होगी। ‘‘चलो देखते हैं,- इन पलों में मेरा मन कहीं और खो गया था इसलिए डी.एस. की बात पर एक औपचारिक सी प्रतिक्रिया की। अब हम कोडियावाड़ा में पहुँच चुके थे। जैसा मैंने बताया, कोडियावाड़ा दूर से ही समतल भू-भाग में बसा हुआ सम्पन्न-सा दिखने वाला गाँव था। गाँव में आकर देखा तो बड़े-बड़े पक्के मकान और पिछवाड़ों में मवेशीखाने बने हुए थे। पूछने पर पता लगा कि वाकई यह पटेलों का गाँव था। कुछ आबादी ब्राह्मण-बनियों की भी थी। पटेल एक किसान कौम है, जो कृषि कार्य में काफी निपुण मानी जाती है। एक मकान के बरामदे में बैठे हुए व्यक्ति से हमने पालचित्तरिया के बारे में पूछा। उसी ने हमें बताया कि यहां मुख्य रूप से पटेल लोग रहते हैं। ‘‘आगे रास्ता खराब है। यूं तो पक्की सड़क पालचित्तरिया तक बनी हुई है लेकिन वह जगह-जगह टूटी हुई है। जीप जैसी मजबूत गाड़ी जा सकती है। आपकी यह कार तो आगे पार नहीं पटकेगी -उस व्यक्ति ने हमे बताया। ‘‘गाड़ी हम यहीं खड़ी कर देते है। रास्ता दिखाने के लिए आप हमें कोई आदमी साथ दे सकें तो हमें सुविधा होगी, -मैंने उस व्यक्ति से आग्रह किया और हमारा परिचय भी दिया। उस व्यक्ति का नाम छगन भाई पटेल था। उसने अपने हाली सोमा भाई को हमारे साथ कर दिया। सोमा भाई बालोटा का आदिवासी है। राजू और गाड़ी को छगन भाई पटेल के घर छोड़कर हम पैदल-पैदल आगे चल दिये। गाड़ी के लिए रास्ता वास्तव में खराब था। ‘‘सोमा भाई, तुम इस पटेल के घर में कब से काम करते हो और यह तुम्हें क्या पगार देता है। -डी. एस. ने पूछा। ‘‘मेरा बाप इसके यहां काम करता था। हमारे पास दो खेत थे। बैलों के लिए पटेल से मेरे बाप ने कुछ कर्जा लिया था, जिसे वह चुका नहीं पाया। ब्याज की वजह से कर्जा बढ़ता गया और बैल भी बेचने पड़े। खेत पटेल के गिरवी रखा हुआ है। मेरे बाप की मौत के बाद मैं इसके यहां हाली का काम करता हूँ। मेरे ऊपर इसका कर्जा अभी भी है। अन्न और कपड़ों के अलावा पटेल मुझे छः हजार रूपये सालाना देता है। मेरी औरत टी.बी. की बीमार है। बच्चे अभी छोटे हैं। मैं ही अकेला घर में कमाऊ आदमी हूँ। ‘‘जब तुम्हें छः हजार रूपये सालाना मिलते हैं तो कर्जा क्यों नहीं चुकता। मैंने पूछा। ‘‘छः हजार में से दो हजार मैं घर-खर्च के लिए रखता हूँ। शेष कर्जे के एवज में पटेल रख लेता है। जब भी पूछता हूँ तो पटेल यही कहता है कि जब कर्जा चुकता हो जाएगा तो मैं बता दूँगा।’’ हमने सोमा भाई की माली हालत जानकर इस प्रसंग को यहीं छोड़ा। शायद यह प्रसंग और कुछ देर चलता लेकिन डी. एस. ने रास्ते के दोनों ओर उगी हुई बटी, कुरी और कोदरा की घास को देखकर कहा, - ‘‘मीणा जी, यह बटी है और वो कुरी और यह देखो, कोदरा है। इन घासों के दानें ही आदिवासियों का मूल-भोजन हुआ करता था। मक्की तो बहुत बाद में आयी। ‘‘कब, मैंने जिज्ञासा जाहिर की। ‘‘कोई चार-पाँच सौ बरस पहले और वह भी मेक्सिको से। ‘‘क्यों भाई सोमा जी, आप बताइये क्या ये मेरे मित्र सही कह रहे हैं। मैंने सोमा जी का मत जानना चाहा। सोमा भाई ने इस सम्बन्ध में पूरी लाइलमी जाहिर की। हम तीनों आगे का रास्ता नाप रहे थे। मैं और डी. एस. पालीवाल खुश थे। हमें सन्तोष था कि आखिर हम पालचित्तरिया से बहुत दूर नहीं है। पिछले चार बरसों से तो मैं और डी. एस. दोनों पालचित्तरिया का कार्यक्रम बनाते रहे पर निकलने का संयोग ही नहीं बैठा। इस बार मैं तो निकल पड़ा लेकिन डी. एस. जरूरी काम छोड़कर मेरे साथ आने को राजी हुये थे। खैर, जस तस हम पालचित्तरिया की राह पर थे। ‘‘बॉस, आपने एक बात पर गौर किया होगा, वह यह कि हमने यात्रा के दौरान जितनी भी बस्तियां, देखी उनमें जो गाँव या छोटे कस्बे देखे या बड़े शहरों की भी बात की जा सकती है कि गैर आदिवासी लोगों के मकान बंद किस्म के मिलेंगे। उनके सदर दरवाजा होगा। उसमें फाटक होगा। दोनो तरफ बाउण्ड्री होगी। यह सब सुरक्षा की दृष्टि से किया जाता है और आदिवासियों के घर देखें तो अलग-अलग दूर-दूर टेकरियों पर झोंपड़ीनुमा बने होते हैं। खुले-खुले होते है ना। ‘‘यह तो ठीक है पर आदिवासियों की झोंपड़ियों के इर्द-गिर्द भी बाड़बंदी तो होती ही है चाहे थूर या कांटेदार झाड़ियों की ही हो। ‘‘मै बन्द और खुलेपन के अन्तर की बात कर रहा हूँ। ‘‘इस विषयक एक किस्सा सुनाता हूँ। ध्यान देना डी. एस.। तीनेक साल पहले मैंने ‘जनसत्ता‘ में एक खबर पढ़ी थी कि मध्यप्रदेश सरकार ने झाबुआ अंचल में किसी जगह इन्दिरा आवास योजना के तहत आदिवासियों के लिए कुछ पक्के मकान बनाना चाहा। आदिवासियों ने इसका विरोध किया। पुलिस बल की मौजूदगी में वहां पक्के मकान बना दिये गये। उस दौरान डर के कारण आदिवासी अपने घरों से दूर जंगल में रहे। झोंपड़ियों की तरह मकान दूर-दूर न बनाये जाकर चिपते हुए बनाये गये थे। जब सरकारी लवाजमा मकान बनाकर, यह सोचकर वापस चला गया कि आदिवासी अब अपनी झोंपड़ियां छोड़कर इन मकानों में रहने लगेंगे। लेकिन हुआ उल्टा। आदिवासी आये और पक्के मकानों को ध्वस्त किया और पूर्ववत् अपनी झोंपड़ियों में ही रहने लग गये। ‘‘वाह, क्या खूब किस्सा आपने सुनाया। मतलब कि रहेंगे, ‘वैसे ही, जैसे रहते आये है। ‘‘डी. एस., बात यह नहीं है। दरअसल किसी भी किस्म के परिवर्तन के लिये सम्बन्धित मानव-समुदाय को लाभ-हानि बताकर विश्वास में लेना चाहिए। प्रश्न यह नहीं है कि आदिवासीजन कच्ची झोंपड़ियों में पक्के मकानों की बनिस्पत सुविधा से रहते हैं। समस्या यह है कि ‘ब्रिटिश-काल से आदिवासियों के पुश्तैनी अधिकारों को छीनने का सिलसिला चालू हुआ। उनके क्षेत्रों में अन्य प्रकार की दखल भी आरम्भ हुई। उनके लिए स्वायत्‍तता महत्वपूर्ण रही है, जिसे छीना गया। यही वजह रही कि कहीं के भी आदिवासी समूहों को देख लो, वे गैरआदिवासी मानव-समाज के प्रति ‘हॉस्टाइल एटीट्यूड रखते हैं। ‘‘मैं समझता हूं, अगर क्षतिपूर्ति होती है और वह भी थोड़ी-बहुत बेहतर तो शायद उनकी शत्रुवत् मानसिकता की पैदा होने की स्थिति नहीं बने । एक बात बताओ, कौन इन्सान जानबूझ कर बेहतर सुख-सुविधाओं वाला जीवन नहीं जीना चाहेगा। आप उसकी साइकोलॉजी को तो समझने का प्रयास करो। डी.एस. ने मेरी बात से सहमति जताई। ‘‘क्यूँ भाई सोमा जी, अगर तुम्हें पक्का मकान दिया जाये, अच्छी चारपाई दी जाये, कीमती सामान रखने के लिए लोहे का बक्सा दिया जाये, चलने के लिए साइकिल दी जाये, बरसात से बचने के लिए छाता दिया जाये, बीमारी के इलाज के लिए तुम्हारे आसपास अस्पताल हो, बच्चों की पढ़ाई के लिए स्कूल हो- और भी बहुत सारी सुख-सुविधाएं हो तो क्या तुम इनका लाभ नहीं लेना चाहोगे या इन्हें छोड़कर जंगल में भाग जाओगे, जहाँ सब कुछ असुरक्षित और अनिश्चित है। मैंने सोमा भाई की ओर मुखातिब होकर पूछा। इस पर सोमा भाई ने जोर देकर हाँ भरी कि अरे साहब, ये सब मिले तो हमारे लिए स्वर्ग है। ‘‘यही पालचचित्‍तरिया है। अब मैं वापस जाऊँ। सोमा भाई ने हमसे पूछा। ‘‘हाँ, आप जाओ सोमा जी। आपने हमें यहाँ तक पहुँचाया, आपका धन्यवाद मैने सोमा भाई का आभार व्यक्त किया। मैने और डी.एस. ने उससे हाथ मिलाये और अलविदा कह हम पालचचित्‍तरिया गाँव में घुसे। पथरीली ऊबड़-खाबड़ जमीन पर बसा हुआ चित्‍तरिया गाँव। अब तो यह बड़ी आबादी का गाँव है। करीब डेढ़ हजार घरों की बस्ती, जिसमें एक हजार से अधिक परिवार आदिवासियों के हैं, जिनमें निनामा, कटारा, डामोर, धोगरा, बलेविया और बारोट खांप के आदिवासी शामिल हैं। शेष आबादी ब्राह्मण, बनियों और पटेलों की हैं। विकास की ओर बढ़ता हुआ मिश्रित जनसंख्या का चित्‍तरिया गाँव, जिसमें सीनियर हाई स्कूल है। पूछते-पूछते हम पहुंचे सरपंच कावा जी के घर के पास। उनकी पत्नी ने बताया कि ‘‘ वे बाहर गये हैं, दो-एक दिन में वापस आयेगे। आपको कोई काम हो तो उनके छोटे भाई से मिल लो। उसने बगल के मकान की ओर इशारा किया, जिसमें उसके देवर रमेश भाई रहते हैं। हम उस मकान में गये, जहाँ रमेश भाई मिले। उन्होंने एक चारपाई एवं दो कुर्सियां बाहर आंगन में बिछा दी। धूप में तेजी थी। नीम के पेड़ की छाँह में कुर्सी खींचकर मैं व डी.एस. बैठ गये। इतने मे ही रमेश भाई लोटे में पानी भर कर लाये। हमने पानी पिया और रमेश भाई को कहा कि वे और तकल्लुफ न करे। चारपाई पर बैठ गये। ‘‘रमेश भाई, आपको पता है, आज से करीब अस्सी-पिचासी साल पहले आपके गाँव में एक हादसा हुआ था, जिसमें फौजों ने काफी तादाद में आदिवासियों का संहार किया था। हम इसी सिलसिले में कुछ जानकारी एकत्रित करने यहाँ आये हैं। आप इसमें हमारी मदद कीजिये और वह स्थल बताइये, जहाँ यह घटना घटित हुई, मैंने बात की शुरूआत इस प्रकार की। ‘‘ जगह तो मैं आप को दोनों ही बता दूँगा, लेकिन .............. रमेश भाई आगे कुछ और कहना चाह रहे थे। मैंने बीच में उन्हें टोका- दोनों से आपका तात्पर्य, जबकि घटना तो एक ही हुई है ना। ‘‘ अजी, आप ठीक कह रहे हैं। घटना तो एक ही हुई बतायी, ऐसा सबने सुना है लेकिन हुआ क्या कि मुख्यमन्त्री नरेन्द्र भाई मोदी ने जिस जगह पर शहीद स्मारक का उद्घाटन किया, वह तो पाल क्षेत्र है, जहाँ पठार है और असल जगह उससे करीब आधा कि.मी. दूर लक्षमणपुरा का दड़वाह है, जहाँ पटेलों के खेत है। असली जगह की पहचान बनी रहे, इसीलिए उद्घाटन के कुछ दिनों बाद कांग्रेसी नेताओं ने वहाँ एक शहीद-दीवार बनवा दी। ‘‘ यह तो बड़ा आश्‍चर्यजनक है कि एक तो असली जगह पर शहीद स्मारक नहीं बनाया और दूसरे, इसमें भी राजनीति घुस गयी -डी.एस.पालीवाल ने प्रतिक्रिया व्यक्त की। ‘‘ऐसा करते हंै, पहले दोनों ही स्थलों को देखते है। -मैंने उन क्षणों के इस विवाद पर और अधिक बातें वहाँ नहीं करना उचित समझते हुए कहा और कुर्सी से उठ गया । डी.एस भी खड़ा हो गये। ‘‘मै अभी आता हूँ । सुरेश भाई एक रिटायर्ड प्रिंसिपल हैं, उन्हें इस विषय में काफी जानकारी है। उन्होंने कागजों में कुछ टीप भी रखा है। मैं उनका पता करता हूं - कहकर रमेश भाई घर के अन्दर चले गये। लोहे की जालियों से बंद किए हुए बरामदे में जाकर उन्होंने फोन किया। उन्होंने आकर बताया कि ‘‘मैंने काफी कोशिश की लेकिन सुरेश भाई के घर पर फोन की घंटी बजती रही और किसी ने फोन उठाया ही नहीं। अगर वे साथ होते तो अच्छा होता। हमने तय किया कि पहले घटना का स्थल देख लेते हैं और उसके बाद कोशिश करते हैं, सुरेश भाई व अन्य बुजुर्गों और घटना की जानकारी रखने वाले लोगों से मिलने की। रमेश भाई स्वयं पढ़े लिखे हैं। वे रिटायर्ड अध्यापक हैं, उनका सहयोगी व्यवहार हमें अच्छा लगा। उनका एवं उनके भाई सरपंच कावाजी के मकान गाँव की मुख्य आबादी से बाहर हैं। हम तीनों वहाँ से गाँव की बगल-बगल खेतों व ऊबड़-खाबड़ जमीन पर चलते हुए पठार पर पहुँचे। पठार नंगा नहीं था। बीच-बीच में काफी वृक्ष थे। वन विभाग द्वारा नये पौधे भी उगाये हुए थे। दिन का तीसरा पहर ढल गया था मगर सूरज छिपने में अभी काफी वक्त था। चित्‍तरिया से भिलोड़ा जाने वाले सड़क पर हम पहुँच गये। बारिश की वजह से सड़क खराब थी लेकिन जीप जैसे वाहन चल सकते थे। हमने तो खैर, हमारी कार कोडियावाड़ा में ही छोड़ दी थी चूँकि वहाँ से आगे चलना मुश्किल था। इस मार्ग के बाईं ओर रमेश भाई मुड़े और हमें बोले, इधर आओ। रमेश भाई ने बगीचेनुमा हरियाली से समृद्ध उस जगह के बाहर लगे हुए लोहे के फाटक की कुंडी को खोला और लोहे के दरवाजे को अन्दर की ओर घकेलते हुए भीतर प्रवेष किया। हम उनके पीछे थे। इस स्थल के सड़क की ओर कांटेदार तारों से बाड़ की हुई थी। अन्दर घुसते ही सामने शहीद-स्मारक नजर आया। पत्थरों के आधार पर रोपा हुआ ग्रेनाइट का स्मारक पट्ट। स्मारक स्थल के बाईं ओर से बच्चों की आवाजें आ रही थी। ठीक पाँच बजे का समय था। दरअसल जहाँ से आवाज आ रही थी, वहाँ प्राइमरी स्कूल है। छात्रों की छुट्टी इस समय हुई थी। रमेश भाई ने पूछने पर बताया कि गुजरात में स्कूलों का समय प्रातः 10 बजे से सायं 5 बजे तक का है। यह प्रसंग इसलिए आया कि चित्‍तरिया में ब्याही शारदा डामोर राजस्थान के सीमांत गाँव-नया गाँव में अध्‍यापिका है और उसके स्कूल की छुट्टी दोपहर में हो गयी थी। कुछ देर स्मारक स्थल को निहारने के बाद हम बाहर निकले। रमेश भाई ने स्थल का फाटक वापस बंद किया। जैसा मैंने ऊपर बताया, बगीचेनुमा स्मारक स्थल में प्रमुख रूप से आम, महुआ, सागोन, यूक्लीप्टस, जिसे यहाँ नीलगिरी और आकाशा भी कहते हैं, बरगद व इमली के दरख्त दिखायी दे रहे थे। अन्य कई किस्म की वनस्पतियां व पौधे भी वहाँ उगे हुए थे। स्थल से बाहर आते ही रमेश भाई ने हाथ से इशारा करते हुए बताया कि ‘‘ वो लक्षमणपुरा का दड़बाह है। जिधर रमेश भाई ने बताया, वहाँ एक गाँव है- लक्षमणपुरा। करीब आधा कि. मी.। वह क्षेत्र समतलीय जमीन लग रहा था। हमें एक और आदमी स्मारक स्थल के बाहर मिल गया। वह लक्ष्मणपुरा का ही रहने वाला था। रमेश भाई और हम अजनबियों को देखकर वह रूक गया था। वह चित्‍तरिया से अपने गाँव ही जा रहा था। परिचय करने के बाद वह भी हमारे साथ हो लिया। थोड़ी देर में हम दड़बाह पहुँच गये। सड़क के दाहिनी ओर काफी निचाई में समतल भूमि पर बसा हुआ लक्ष्मणपुरा सामने दिख रहा था। बीच में खेत थे, जिनमें हाल ही बोई फसल के नन्हे-नन्हे पौधे उगे हुए थे। प्रमुख रूप से इस फसल में मक्का, ग्वार, मूंग और तिल बोये गये थे। जो नया आदमी हमें मिला, उसका नाम शंकर भाई था। वह भी आदिवासी ही था। ‘‘असल जगह यह है- रमेश भाई ने सामने के खेतों की ओर संकेत करते हुए बताया। एक खेत के पास एक कमरा बना हुआ था। वहाँ ट्यूबवैल भी था। पास ही वह दीवार खड़ी थी, जिसका जिक्र रमेश भाई ने पहले किया था। ‘‘वास्तविक जगह यह है, जहाँ कांग्रेसियों ने शहीदों की स्मृति में दीवार बनायी। ‘‘हाँ, यही वो जगह बताई जाती है, जहाँ मिनख-मराई हुई थी- अनपढ़ शंकर भाई ने रमेश भाई की बात का जोर देकर समर्थन किया। ‘‘सुना है, कुछ कुए भी चिन्हित किए बताये, जिनमें लाशों को पटक कर मिट्टी से रपेट दिया गया था। डी. एस. पालीवाल ने जिज्ञासा जाहिर की। ‘‘देखिये, अब से बहुत अर्सा पहले कुए बराबर कर दिए गये थे। अब उनका कोई पता नहीं। वह दीवार, जो कांग्रेस के नेता अमरसिंह चैधरी ने कहकर बनवायी थी और नरेन्द्र मोदी द्वारा किये गये स्मारक-उद्घाटन से एक महीना बाद ही बनवायी थी, उसके पास के खेत में एक कुआं था। वह कुआं काफी बरसों पहले मिट्टी से भर दिया गया था। ‘‘तो क्या उसे खोदने से उसके भीतर मानव-अस्थियां मिलने की संभावना है, मैंने पूछा। ‘‘यह नहीं कहा जा सकता। रमेश भाई ने ही जवाब दिया। शंकर भाई जाँच-पड़ताल के इन क्षणों तक चुप हो गया और कुछ चिन्तित सा भी दिखाई दिया। ‘‘लक्ष्मणपुरा चलें, लोगों से बात करते हैं, डी. एस. ने प्रस्ताव रखा। मैंने सोचा प्रस्ताव क्या, जब यहां तक आ गये तो लक्ष्मणपुरा हमें जाना ही था ‘‘मैं चलता हूँ। शंकर भाई हमें बोलकर वहाँ से चल दिया। रमेश भाई ने उसके जाने के बाद हमें बताया कि ‘‘लक्षमणपुरा का कोई आदमी हमें कुओं के बारे में कुछ भी नहीं बताता है। कुएं तो यहाँ दर्जन भर बताये जाते हैं, जिनमें लाशों को डालकर ऊपर से मिट्टी डाल दी गई थी ताकि कोई नामोनिशान शेष न रहे। यह कुएं पटेलों के थे और गांव में पटेलों का दबदबा है। यह आपका संतोष है कि लक्ष्मणपुरा में चलकर पूछताछ कर लें लेकिन मैं सही बताता हूँ , कोई कुछ नहीं बोलेगा। ‘‘चलो, एक बार गांव में जा तो आयें, मैंने कहा और हम तीनों लक्ष्मणपुरा पहुँचे। गांव के चौक में कुछ बुजुर्गो से हमने बातचीत की लेकिन रमेश भाई की बात सही निकली। किसी ने हमें सहयोग नहीं दिया। जो बातें उन्हें पता होगी, वह भी हमें नहीं बतायी। कुओं का जिक्र और मालिकों के नाम सामने लाने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं हो सकता था। उल्टे ग्रामीणों ने हमें शक की निगाह से और देखा। हमने यही उचित समझा कि यहाँ से प्रस्थान किया जाय। हमारी चिन्ता रमेश भाई को लेकर थी। हालाँकि यह चिन्ता निर्मूल थी, जिसकी वजह यह थी कि रमेश भाई रिटायर्ड अध्यापक हैं, उनके भाई चित्‍तरिया के सरपंच है और इस परिवार के पीछे काफी लोग हैं, खासकर आदिवासीजन। लक्ष्मणपुरा से दड़वाह, और फिर स्मारक होते हम सुरेश भाई की तलाश में उनके घर की ओर जा रहे थे। वैसे तो सुरेश भाई का गांव चित्‍तरिया ही है मगर वे चित्‍तरिया के दक्षिण में गांव से काफी दूर अलग से रहते हैं, जो स्मारक व चित्‍तरिया दोनों से करीब ढा़ई कि.मी. दूर है। रास्ते में पुराना गढ़ दिखायी दिया। ‘‘यह क्या है। ‘‘यह पाल के जागीरदार का गढ हैं। रमेश भाई ने बताया। ‘‘क्या कोई रहते हैं इसमें। रमेश भाई ने ही डी.एस. की जिज्ञासा का समाधान किया और हमारे साथ था भी कौन! उन्होंने बताया कि ठाकुर हमीर सिंह राठौड़ यहाँ रहते हैं। उनके दादा पृथ्वीसिंह राठौड़ उस जमाने में यहाँ के जागीरदार थे। उन्होंने भी नरसंहार के वक्त अंग्रेजों व विजयनगर रियासत की मदद की थी। गढ़ की तरफ नफरत की नजर डालते हुए हम आगे बढ गये। ‘‘अरे ! उस शारदा टीचर का घर कहाँ हैं, हमें उससे मिलना है। वह यहीं तो रहती है और विश्वसनीय भी है। वह हमें कुछ न कुछ अवश्य बतायेगी। -डी.एस. दिन भर से शारदा से मिलने को बेताब थे। इसकी और कोई वजह हो न हो, कम से कम डी.एस. की टीम में उसने सक्रिय भूमिका जो निभाई थी। मैंने डी.एस. की भावना की कद्र की, जो मैं पूर्व से ही सारे रास्ते करता आ रहा था। रमेश भाई को शारदा के घर का पता नहीं था। उसने एक जगह पूछा तो शारदा के घर की लोकेशन हमें मिली। हम थोड़ा चलने के बाद शारदा के घर थे। काँटेदार झाड़ियों की बाड़ के भीतर उसका पक्का मकान था। बाड़ के भीतर से लकड़ी का फाटक बना हुआ था, जो खुला छूटा हुआ था। शारदा मकान के बाहर अपने छः-सात साल के पुत्र के साथ बातें करती हुई कोई घरेलू काम करती मिली। डी.एस. उसे फाटक के भीतर प्रवेश करते ही पहचान गये। डी.एस. पालीवाल को लम्बे अर्से बाद देखकर शारदा को सुखद आश्चर्य हुआ। वह हमें देखकर हाथ हिलाकर अभिवादन करती हुई मकान के बरामदे में घुस गयी। वहाँ एक व्यक्ति को उसने जगाया, जो बीच बरामदे में पंखे के नीचे सोया हुआ था। तब तक हम बरामदे के बाहर पहुँच चुके थे। बाद में पता चला, वह व्यक्ति शारदा के ससुर थे। शारदा ने उनसे कुछ कहा और बरामदे के बाहर आ गयी। जिन क्षणों में भीतर बरामदे में शारदा का ससुर आँखें मलता हुआ नींद से जागृत अवस्था में आने की प्रक्रिया से गुजर रहा था, शारदा से डी.एस. ने हाथ मिलाया। ‘‘देखो, शारदा शेक हैण्ड करती है। डी.एस. ने मेरा ध्यान आकर्षित करते हुए कहा पर मैंने इस बात पर ज्यादा गौर नहीं किया। हाँ, शारदा की तरफ हाथ बढाया और उसने भी हाथ मिलाकर मेरा अभिवादन किया। रमेश भाई को वह खूब जानती थी। शारदा ने हाथ जोड़कर रमेश भाई का सत्कार किया और हमें बरामदे में ले जाकर वहाँ रखी प्लास्टिक की दो कुर्सियों को दीवार के सहारे से खींचकर अपनी साड़ी के पल्लू से फटकार कर पंखे के नीचे बिठाया। रमेश भाई शारदा के ससुर के साथ पास ही रखी चारपाई पर बैठ गये। शारदा का मासूम बच्चा अब तक अपने दादा की गोद में जाकर बैठ गया था। शारदा के घर मात्र औपचारिक आवभगत और वार्तालाप हुआ। शारदा को घटना के बारे में कोई सारगर्भित जानकारी हो, ऐसा मुझे नहीं लगा। वैसे भी ससुर के सामने वह खुलकर बात नहीं कर पा रही थी। शिक्षित और मुख्यधारा के निकट आ जाने पर आदिवासियों के मूल स्वभाव में औपचारिकता और सावधानियों की सीमाओं के आ जाने से परिवर्तन के संकेत शारदा को देखकर मुझे आभासित हो रहे थे। मैं अपने भीतर कहाँ तक सही था, यह मैं निर्णय करने की स्थिति में कतई नहीं था। हालांकि सुरेश भाई और रमेश भाई गाँव चित्‍तरिया के ही रहने वाले हैं लेकिन रमेश भाई को कई जगह सुरेश भाई के घर का पता पूछना पड़ा। यही हाल शारदा के घर को लेकर था। अन्य गाँवों की ही तरह चित्‍तरिया गाँव के आदिवासी भी सामूहिकता और परस्पर भाई-चारा में विश्‍वास रखते होंगे। लेकिन ठेठ जंगलों में रहने वालों से कुछ भिन्न संस्कृति इस गाँव की लगी जबकि इस गाँव के काफी आदिवासी शिक्षित और सरकारी नौकरियों में भी हैं। एक ऊटपटांग सा सवाल मेरे मन में अंगड़ाई लेता हुआ प्रतीत हुआ कि कहीं तथाकथित मुख्य धारा में आने से आदिवासियों की मूल संस्कृति अन्यथा प्रभावित न हो जाये। सतही जानकारी के आधार पर उन क्षणों इस सवाल का सकारात्मक जवाब तलाशने का निर्णय जोखिम भरा था। अतः इस उलझन को मैं भीतर ही भीतर दबा गया। अब हम सुरेश भाई के मकान के बाहर थे। बगल में एक प्राइवेट स्कूल था जहाँ हमने सुरेश भाई की उपलब्धता के बारे में जानकारी की। हमें बताया गया कि वे घर में ही होंगे। मकान का दरवाजा बंद था। आवाज सुनकर सुरेश भाई किवाड़ खोल कर बाहर आये। हमने परिचय दिया। रमेश भाई को वे जानते ही थे। जैसे ही मैंने पालचित्‍तरिया वाले हत्या कांड का जिक्र किया सुरेश भाई ने उत्साह और आत्मीयता से हमे कमरे में बिठाया। इधर उधर की बातों में वक्त जाया न करते हुए हम सीधे विषय पर केन्द्रित होकर चर्चा करने लगे। ‘‘रमेश भाई, क्या आपने इनको दोनों जगह दिखा दी, दुबले-पतले, गेंहुआ रंग के, ठीक से कद के सुरेश भाई ने पूछा। ‘‘हाँ, वो मैंने बता दी है। जिस खेत में कांग्रेसियों ने शहीद-दीवार बनायी वह खेत किसका है, यह मैं नहीं जानता। ‘‘अरे वह तो जस्सू का है। हाँ, जस्सू भाई मोड पटेल। ‘‘और वह कुआ भी उसी खेत मैं था ना जिसके बारे में सुना है कि लाखों को दबा दिया गया था। रमेश भाई ने उत्सुकता जाहिर की। रमेश भाई के चेहरे के भावों से स्पष्ट आभास हो रहा था कि जो उन्होंने हमें सुरेश भाई के बारे में बताया था कि इस सारे वाकया की बहुत कुछ जानकारी सुरेश भाई को है, वह सही है। उन्हें यह आश्‍वस्ति हुई कि घटना की जानकारी चाहे स्वयं को कम हो लेकिन जिसे काफी कुछ पता है, उस व्यक्ति से मिलवाने में वह सफल हुआ। ‘‘हाँ बरोबर, सही बोला रमेश भाई आपने। सुरेश भाई की वाणी में विश्‍वास झलक रहा था। ‘‘इस विषय में आपको जितनी जानकारी है, वह हमें बताइये, सुरेश भाई। -डी.एस. ने बहुत उतावले होकर जानना चाहा। ‘‘एकी आंदोलन के माध्यम से जिस आदमी ने यहाँ-वहाँ आदिवासियों में जागृति का काम किया, वह तो आप को पता है ही। वह शख्स था-मोतीलाल बनिया (तेजावत), लेकिन इस इलाके के आदिवासियों के जो खास मुखिया थे, वह थे-मेरे दादा रामजी भाई मंगलाजी परमार। तो आप परमार गोत के आदिवासी है। मैंने हल्का फुल्का हस्तक्षेप किया। ‘‘हाँ सुरेश भाई ने इतना कह कर अपनी बात जारी रखी- ‘‘तो मेरे दादाजी मोतीलाल के खास आदमी थे। उन्होंने ही घटना के दिन आदिवासियों को बड़ी संख्या में इकट्ठा होने के लिए प्रेरित किया था। महीनों तक घर बार छोड़ कर वे इलाके में घूमे थे। अँग्रेजों के कहने से विजयनगर रियासत की आदिवासी विरोधी नीतियों के कारण आदिवासी दुःखी थे। जागीरदारों द्वारा बिना कुछ लिए-दिये बेगार करवायी जाती थी। वनोपज पर सरकार ने पाबंदी लगा दी थी और जंगलों को काटा जाने लगा था। सागोन की लकड़ी इंग्लैण्ड व अन्य देशों में भेजी जाने लगी थी । अँग्रेजों ने जो-जो छावनियां स्थापित की और विभिन्न विभागों के कार्यालय खोले, उनके भवनों में वही लकड़ी उपयोग में ली गई थी इसलिए जंगलों को भारी नुकसान हो रहा था। जो भी थोड़ी बहुत खेती-बाड़ी होती, उस पर लगान लगा दिया गया था। आये दिन लोगों को सरकारी कर्मचारियों और जागीरदार के आदमियों द्वारा परेशान किया जाता था। इस सारे माहौल में मोतीलाल जैसा संकल्पी नेता आदिवासियों को मिला । वह यहाँ कई बार आया था। उसके खिलाफ अंग्रेजों ने फरारी का फरमान जारी किया था तब भी कई दिनों तक वह यहां इस इलाके में छिपकर रहा था। ‘‘यह क्षेत्र किस जागीर में आता था। मैंने रमेश भाई द्वारा बतायी सूचना को पुख्ता करना चाहा। शायद यह रमेश भाई को अच्छा नहीं लगा होगा चूंकि उन्होंने रास्ते में जागीरदार के गढ के बारे में हमें बता दिया था। ‘‘उस जमाने में पृथ्वींसिंह राठौड़ यहाँ के जागीरदार थे। पाल नाम से वह जागीर थी, जिसमें पालचित्‍तरिया, पाल दड़बाह, लक्षमणपुरा, जिंजोड़ी, जायला, मसौता, लीमड़ा, चितौड़ा, चितरोड़ी, परवट, चोरीमाड़ा, कणादर आदि गाँवों का इलाका था। पाल जागीर काफी बड़ी थी और यहां का तत्कालीन जागीरदार पृथ्वीसिंह भी रियासत का विश्‍वसनीय आदमी था। मेरे दादा एक प्रभावशाली आदमी थे। उनकी उठक-बैठक जागीरदार के साथ ही होती थी। वे इस गाँव के गमेती थे अर्थात् मुखिया। ‘आदिवासियों के मुखिया और जागीरदार के साथ मेलजोल, हमारी समझ में न आने वाली बात थी। मैंने और डी.एस. ने इक-दूजे की ओर संशयभरी निगाहों से देखा। यह बात पचनेवाली नहीं थी इसलिए डी.एस. ने आखिर सुरेश भाई से पूछ ही लिया- ‘‘सुरेश भाई, आपके दादा ने इतनी बड़ी लड़ाई लड़ी फिर उनका तालमेल जागीरदार के साथ क्यों। ‘‘बात यह है कि मुखियाओं को अपनी कौम के बहुत सारे काम आये दिन जागीरदार से करवाने होते थे और जागीरदार भी मुखियाओं से सम्पर्क बनाकर चला करते थे। जो बात मुखियाओं को आदिवासियों के विषय में बुरी लगती, उनकों लेकर जागीरदार यही कहा करते थे कि रियासत का हुक्म है, उनकी तो पालना करनी पडे़गी, लेकिन जब बात आगे बढ़ती गयी तो आदिवासी मुखिया जागीरदार के खिलाफ हो गये थे। हत्याकांड से काफी वर्षो पहले ही मेरे दादा और जागीरदार पृथ्वीसिंह के मधुर सम्बन्धों में कड़ुवाहट आ गयी थी। इसीलिए तो मेरे दादा ने मोतीलाल का साथ दिया। सुरेश भाई की ओर से किया गया यह समाधान कितना सही था, इसका पक्का फैसला करना मुश्किल था लेकिन जिस सरल स्वभाव के सुरेश भाई हैं, उसे देखते हुए उन पर किसी भी प्रकार का शक करना हमारी बड़ी भूल होती। अतः मैंने तथा डी.एस. ने सुरेश भाई की बात को सही भावना से ही लिया और इस मुद्दे पर अनावश्‍यक उलझना उचित नहीं समझकर सुरेश भाई को और जानकारी देने के लिए प्रेरित किया। ‘‘हत्याकांड में हताहत होने वाले आदिवासियों में पाल जागीर के अलावा विजयनगर रियासत की अन्य जागीरों के आदमी भी शामील थे। उदयपुर स्टेट के भौमट क्षेत्र के गाँव छाणी, बलीचा, ज्वारवा, बोमटावाला, सरेरा, मुखोड़ी, जांजरी, डबायचा, कनवई के आदिवासी भी यहाँ इकट्ठे हुये थे । उस दौर में चाहे आज के राजस्थान की बात हो या गुजरात की, सभी जगह आदिवासी तत्कालीन राज की नीतियों से परेशान थे। अलग अलग हिस्सों में रहने के बावजूद उनके दुःख एक-से थे इसलिए विरोध और लड़ाई भी एक सी ही होनी थी। ‘‘ लेकिन सुरेश भाई, एक बात हमारी समझ में नहीं आती। वह यह है कि इस इलाके में आदिवासियों ने फिरंगियों और रियासतों की गठजोड़ी भारी ताकत से इतनी बड़ी लड़ाई लड़ी। भारतीय इतिहास में हुए स्वतन्त्रता संग्राम की यह बहुत बड़ी घटना थी। इतनी एकजुटता संघर्ष और बलिदान ! इसके बावजूद यहाँ के लोग घटना के बारे में बात करना भी पसन्द नहीं करते या कहें कि इतने झिझकते क्यों है। दिनभर का जैसा अनुभव रहा उसके आधार पर मैंने यह अनिवार्य प्रतिक्रिया सुरेश भाई के समक्ष व्यक्त की। ‘‘मैं कहना चाहूंगा कि यहाँ के वाशिंदों को घटना के बारे में जानकारी है। अभी ज्यादा वक्त भी नहीं हुआ घटना को। इतिहास में नब्बे-सौ बरस कोई लम्बी अवधि नहीं मानी जा सकती। खैर, अब जब कि मुख्यमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने शहीद-स्मारक बनवा कर एक बड़ा कार्यक्रम आयोजित कर दिया और उधर कांग्रेसियों ने भी शहीद-दीवार बनवाकर उनकी तरफ से भी उस बलिदान को स्वीकार कर प्रचार-प्रसार कर दिया फिर लोगों में किस बात की झिझक हैं, डी.एस. ने मेरी बात का समर्थन करते हुए सुरेश भाई से इस बारे में जानकारी चाही। ‘‘जहाँ तक मैं समझता हूँ, मुझे इसके दो-तीन कारण नजर आते हैं। सबसे बड़ा कारण तो यह है हताहत होने वालों के वंशजों में इस घटना का खौफ है। इतने बड़े हादसे की स्मृतियां दिल दहलाने वाली होती हैं। दूसरे, कुछ लोगों ने पक्के मकान बनाने के लिए नींव खोदी तो जमीन में मानव-अस्थियां मिली, जिन्हें उन्होंने चुपचाप रफा-दफा करना उचित समझा ताकि वहाँ बनने वाले मकानों के बारे में उल्टी-सीधी चर्चाएँ न फैले। इसी तरह एक आशंका यह है कि अगर इस घटना का अधिक प्रचार-प्रसार हुआ तो यह सम्पूर्ण क्षेत्र राष्ट्रीय बलिदान की दृष्टि से सुरक्षित क्षेत्र घोषित हो जायेगा। ‘‘मुझे ऐसी मानसिकता और भ्रांतियों पर अधिक विश्वास नहीं। अरे, यह भी कोई बात हुई कि पुरखों के बलिदान पर गर्व न किया जाये और सुरक्षित क्षेत्र वाली बात की आशंका भी निर्मूल लगती है चूँकि अगर ऐसा होता है तो सरकार बतौर मुआवजा नयी जगह देगी। सुरेश भाई के कथन पर मैंने बेबाक टिप्पणी करते हुए इस मानसिकता की गहराई में जाने की इच्छा जताई। ‘‘दरअसल दड़वाह वाली जो जमीन है वह पटेलों की है और इलाके में उनका प्रभाव है। पठार वाली जगह पर तो स्मारक बना ही दिया गया है। पटेलों को आशंका है कि जहाँ हत्याकांड की असल जगह बतायी जाती है और उस जगह पर कांग्रेसियों ने शहीद-दीवार बनायी है और आसपास के खेतों में वे कुए बताये जाते हैं, जिनमें लाशों को दबाया गया तो वे सारे खेत पटेलों के हैं। वे नहीं चाहते कि उनके उपजाऊ खेत हाथों से निकल जायें।’’ ‘‘तो क्या यह माने कि नरेन्द्र मोदी ने भी पटेल-लॉबी के चलते असल जगह पर शहीद स्मारक नहीं बना कर सरकार के कब्जे वाली पठारी भूमि पर बनवाना उचित समझा। ‘‘हाँ, इस बात में दम है और यह भी कि अब जिन पटेलों के वो खेत हैं, जिनमें वे कुए बताये गये, जिनमें लाशें डाली गयी तो उनमें कुछ मिलने वाला भी नहीं है। डी.एस. की सार्थक प्रतिक्रिया का सुरेश ने भाई ने जवाब दिया। ‘‘ऐसा क्यों, जब कुओं की जगह पहचान ली गयी है तो उस जगह पर अगर आज खुदायी की जाये तो निश्चित रूप में वहाँ शहीदों की हड्डियां मिलेंगी और अगर ऐसा होता है तो यह एक बड़ी राष्ट्रीय उपलब्धि मानी जायेगी। ‘‘मीणा जी, बात यूँ है कि मैंने इस मामले में काफी रूचि लेकर काम किया है। इस चर्चा में काफी सचाई लगती है कि हादसे के बाद से ही इस हत्याकांड की बात को दबाने का प्रयास किया गया। अंग्रेजों या रियासत के रिकार्ड में इसका कहीं जिक्र नहीं मिलता। उस जमाने में संचार या सूचना के कोई ठीक साधन थे भी नहीं। जो भी थे उन पर ब्रिटिश सरकार और देशी रियासतों का नियन्त्रण था। वे क्यों चाहते कि इस घटना का प्रचार हो। सुना है कि बाद में कुओं में से भी हड्डियों को निकाल कर नदी में बहा दिया गया ताकि कोई अवशेष भविष्य में भी किसी को नहीं मिल पाये। ‘‘देखो, सुरेश भाई ! जब अपन मानते हैं, कि काफी बड़ी तादाद में लोग मरे तो क्या खुदायी में कुछ भी नहीं मिलेगा। ‘‘हाँ, इस बात में दम है सुरेश भाई, -डी.एस. ने मेरी बात का समर्थन किया। ‘‘अमरसिंह चैधरी जब मुख्यमंत्री थे, तब एक बार यह योजना बनी भी थी कि सम्बन्धित स्थलों की खुदायी की जाये लेकिन योजना बनने के स्तर पर ही रह गयी और सरकार बदल गयी। ‘‘यह बात चलो ठीक है, सुरेश भाई, लेकिन आदिवासी जो जन प्रतिनिधि हैं या और जो सक्रिय एन. जी. ओज या व्यक्ति हैं उन्हें ऐसी माँग रखकर सरकार को सहमत करना चाहिए। आखिर यह कोई व्यक्तिगत या गाँव का मामला नहीं है। यह तो राष्ट्रीय महत्व का विषय है। चलो उम्मीद करते हैं इसे लेकर भविष्य में कुछ हो। यह कहते हुए मैंने मूल विषय पर चर्चा जारी रखने के लिए सुरेश भाई से आग्रह किया कि ‘‘आपने तो इस घटना पर काफी काम किया है। क्या ऐसे कोई बुजुर्ग मिल सकते हैं, जो उन दिनों समझदारी की उम्र के हों और जिन्होंने घटना देखी हो या तत्काल में सुनी हो। ‘‘इस सम्बन्ध में मैंने काफी लोगों से बात की है। जो व्यक्ति चश्मदीद गवाह इस काण्ड के रहे, उनमें से पीतरजी भाई गलजी भाई मणात निवासी ग्राम सामइया, अहारी डेनियल निवासी मोवतपुरा आदिवासी ईसाई और रूपसी भाई गमेती निवासी कणादर से मैंने खूब बातें की हैं। उन्होंने पूरा वृतांत सुनाया। अब ये तीनों ही गुजर चुके हैं। जिन्होंने घटना देखी तो नहीं लेकिन बाद में सुना, उनमें मैंने धर्मा भाई बोदर निवासी टीटारण और गोमाजी लाला जी निनामा निवासी गाड़ी है। ये दोनों कुछ अर्सा पहले तो जिन्दा बताये गये थे, लेकिन सुना है कि सुनने और बोलने में इन्हें काफी कष्ट होता है। ‘‘ये दोनों कितनी दूर हैं ?’’ डी. एस. ने उत्सुकता जाहिर की। ‘‘टीटारण तो करीब दस कि. मी. दूर है और गाड़ी गाँव पाँच कि. मी. करीब पड़ेगा। लेकिन अब उनसे बात करने का कोई लाभ नहीं चूँकि वे बहुत बुजुर्ग हैं और मुझे पता नहीं, इन दिनों जिन्दा है भी या नहीं। हाँ, एक प्रत्यक्षदर्शी और है। वो क्या नाम है रमेश भाई, वो जो मुस्लिम बुजुर्ग है ना, जो अपने पोते के पास अहमदाबाद रहता है। सुरेश भाई ने रमेश भाई की ओर मुखातिब होकर अंतिम वाक्य में पूछा। ‘‘हाँ, वो याकूब भाई....... ‘‘अरे हाँ, वो याकूब भाई गमेरा जी गोगरा। हाँ, अब याद आ गया, उसका नाम। वह चित्तरिया का ही रहने वाला है। लेकिन वो अहमदाबाद रहता है। जिंदा तो है लेकिन हालत कैसी है, यह कहा नहीं जा सकता। सुरेश भाई ने रमेश भाई की सहायता से अपनी स्मृति को संभाला। ‘‘फौजें कहाँ-कहाँ से आयी थी। मैंने चर्चा को आगे बढाने के उद्देश्य से सुरेश भाई से पूछा। इस दरम्यान मकान के अन्दर से सुरेश भाई की पत्नी चाय लेकर आयी। मैंने व डी. एस. ने उन्हें नमस्ते किया। वह चाय रखते हुए हमारे अभिवादन का सर हिलाकर जवाब देते हुए वापस अन्दर चली गयी। डी. एस. ने चाय के साथ खाने की किसी वस्तु की चाह में मेरी ओर इशारा किया। मेरी इच्छा भी ऐसी ही कुछ थी। दरअसल हम दोनों ने सुबह नाश्ता ही किया था। यात्रा और यहाँ की जरूरी व्यस्तता ने खाने के जुगाड़ का अवसर ही नहीं दिया। वैसे इस गाँव में खाने की व्यवस्था आसानी से कहीं भी हो जाती और ड्राईवर राजू ने शायद ऐसी कोई व्यवस्था कोड़ियावाड़ा में कर भी ली होगी, मगर हमें उस वक्त भूख सताने लगी। सूर्यास्त हो चुका था। चित्तरिया के वातावरण में गोधूलि-धुंधलका छाता जा रहा था। थोड़ी ही देर पहले सुरेश भाई ने कमरे की टयूबलाइट का स्विच ऑन किया था। हम तो सकुचाहट में ही रहे लेकिन इन्हीं क्षणों सुरेश भाई की पत्नी पुनः कमरे में आयी और स्टूल पर बिस्कुट की एक प्लेट रख गयी। हम दोनों को सुखद लगा हाँलाकि हमारी उदरपूर्ति का तो इन बिस्कुटों से सवाल ही पैदा नहीं होना था। ‘‘प्रमुख भूमिका तो एम.बी.सी. खेरवाड़ा ने निभाई थी, जो सीधे ब्रिटिश गवर्नमेंट के अधीन थी। ईडर के शासक दौलतसिंह राठौड़ ने फौजें भेजकर सहायता की थी। विजयनगर रियासत की फौजें तो थी ही। मैंनें यह भी सुना है कि मेवाड़ के महाराणा ने भी फौजें भेजी थी। सभी फौजी टुकड़ियां एम.बी.सी. के कमांडेंट मेजर एच.जी.शटन के अधीन थी।’’ ‘‘एम.बी.सी. की फौज में मुख्य भूमिका हमारे अपने ही सुबेदार मेजर हूर जी ने निभाई थी ’’ डी. एस. ने हस्तक्षेप किया, जो सामयिक और सटीक था। ‘‘हूर जी ही क्या, अन्य फौजी भी तो आदिवासी ही थे‘‘-सुरेश भाई ने अपनी बात जारी रखते हुए आगे कहा - ‘‘आदिवासियों की उस ‘एकी-पंचायत’ के बारे में विजयनगर के शासक को लगातार सूचना पाल का जागीरदार पृथ्वीसिंह राठौड़ भिजवाता रहा था। ‘‘सुरेश भाई एक शंका है, उसका समाधान यहाँ चर्चा के दौरान किया जाय, -मैंने जाहिर किया। ‘‘वह क्या ‘‘वह यह कि जिस जगह को आप लोग वास्तविक घटना स्थल बता रहे हो, वह समतल और उपजाऊ जमीन है और पहले भी निश्चित रूप से ऐसी ही रही होगी चूँकि वहाँ पत्थर-कंकड़ नहीं हैं और जहाँ स्मारक बनाया है, वह ऊँचाई पर अवस्थित पठार है। आदिवासियों की ही क्या अन्य जन की पंचायत प्रायः ऊँचाई वाली जगह पर होती है। यहाँ भी ऐसा ही हुआ होगा। यह अलग बात है कि पठार पर पथरीली भूमि की वजह से कुए नहीं होंगे इसलिए लाशों को ढब-ढाँके लगाने का काम नीचे वाली जमीन पर किया गया हो।’’ ‘‘हाँ बॉस, मैं भी यही सोच रहा था- डी.एस. ने मेरी बात का मुखर समर्थन किया और मुझे लग रहा था कि रमेश भाई की भी मूक सहमति मुझ से थी चूँकि उनके चेहरों के भावों से ऐसा ही प्रतीत हो रहा था। ‘‘मीणा जी, आप जो कह रहे हैं, सम्भव है, वास्तविकता यही रही हो, लेकिन आपने देखा होगा कि जिसे हम पठार कह रहे हैं, वहाँ पेड़-पौधे काफी हैं, खासकर शहीद-स्मारक स्थल पर। इसका मतलब है कि हो सकता है, वहाँ घना जंगल हो और बड़ी संख्या में आदिवासियों के बैठने की सहूलियत न रही हो। शायद इसलिए नीचे वाली समतल भूमि पंचायत के लिए चयनित की गई हो। ‘‘हाँ, यह संभव है। ‘‘बात यहाँ बहस की नहीं है सुरेश भाई, हो सकता है जिस जगह पर स्मारक का उद्घाटन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किया है, वहाँ पंचायत शुरू हुई हो और गोलीबारी के चलते लोग भाग कर नीचे दड़वाह की ओर गये हों फिर वहाँ भी फौजों ने उनका पीछा किया हो। सम्भव है, दोनों जगहों को शामिल करता हुआ घटना-क्रम रहा हो। मुझे यह बताओ, जिन प्रत्यक्षदर्शियों से आपने बात की थी, उन्होंने किसी जगह को पिन-पाॅइन्ट किया है क्या। ‘‘हाँ, वे एकमत से दड़वाह वाली जगह पर जोर देते हैं और वे थे भी वहीं। मगर वो यह भी कहते हैं कि भीड़ ऊपर पठार पर भी थी’’ -मेरी बात का जवाब देते हुए सुरेश भाई बोले। इस बहस में ज्यादा उलझने का कोई औचित्य नहीं था चूँकि दोनों स्थलों के बीच दूरी मात्र एक-डेढ़ कि. मी. की ही है और इतनी बड़ी घटना, जिसमें हजारों आदिवासी एकत्रित हुए, भगदड़ के दौरान दड़वाह से पठार पर या पठार से दड़वाह तक घटना चक्र का विस्तार सम्भव है। पाल इलाकों में जितना हमें काम करना था, हमने कर लिया। अधिक जानकारी मिलने की सम्भावना यहाँ नहीं थी। ‘‘सुरेश भाई, आपकों जितनी जानकारी थी, आपने हमें उपलब्ध करवायी, इसके लिए हम आपके आभारी हैं। आप हमें अनुमति दें- मैंने सुरेश भाई से विदा मांगी। ‘‘आज रात यही ठहर जाइये ना। हमे अच्छा लगेगा। आपको किसी तरह की असुविधा नहीं होने देंगे- सुरेश भाई ने हमसे जो आग्रह किया, उस पर मैं व डी.एस. प्रतिक्रिया व्यक्त करते उससे पहले रमेश भाई बोले- ‘‘हाँ, मीणा जी आप कब-कब आओगे, सुबह चले जाना। ‘‘नहीं, आपका पूरा दिन हमारे खाते में रहा, इसका आभार तो शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। जिस आत्मीयता से आप दोनों ने हमें सहयोग दिया, उसकी सुखद स्मृति मेरे जीवनानुभव के खजाने में सदैव सुरक्षित रहेगी। हम दोनों ही बहुत दिनों से इस जगह को देखने के लिए आकुल थे । आज वह इच्छा पूरी हुई। अरे ! यह तो आदिवासी ही क्या, राष्ट्रीय स्तर का तीर्थ-स्थल है। मैं उन महान् शहीदों को नमन करता हूं अब हमें चलने की इजाजत दो- कहते हुए मैं चारपाई से खड़ा हुआ।‘‘ ‘‘बॉस धन्यवाद है आपका, जो मुझे भी यह जगह दिखा दी- डी.एस. ने यह कहते हुए सुरेष भाई से हाथ मिलाया। रमेश भाई को कुछ दूरी तक हमारे साथ चलना था। उनका घर उधर ही था, जिधर हमें जाना था। चित्‍तरिया की मुख्य आबादी में रमेश भाई से भी हमने विदा ली । चित्‍तरिया से कोड़ियावाड़ा तक की वापसी का रास्ता हमें मालूम था। हम दोनों थोड़ी देर में कोड़ियावाड़ा पहुँच गये, जहाँ राजू ड्राइवर बेसब्री से हमारा इंतजार कर रहा था।‘ राजू ! तुमने दिन में कुछ खाया या नहीं, हमारा तो आज व्रत हो गया- डी.एस. ने पूछा। ‘‘साहब ! मैंने तो पटेल के यहाँ रोटी खा ली। उन्होंने बड़े प्रेम से मुझे खाना खिलाया। अब काफी देर हो गयी है, चलो । ‘‘राजू ठीक कह रहे हो , अब चलना चाहिए। अरे हाँ, वो पटेल और सोमा भाई कहाँ है- मैंने राजू से पूछा। ‘‘सोमा तो अपने गाँव चला गया और पटेल तीसरे पहर करीब कहीं रिष्तेदारी में निकल गया। तो दोनों से मिलना नहीं होगा। अब हमें चलना ही चाहिए-मेरे यह कहने तक हम तीनों गाड़ी में बैठ चुके थे। यूँ कर , हम करीब नौ बजे वहाँ से चल दिये। आसमान में मेघ और धरती पर अंधेरा छाया हुआ था। विजयनगर मोड़ आते-आते छिटपुट फुहारें बरसने लगी थी। बरसाती कीट हवा में उड़ रहे थे। कार के शीशे से टकरा-टकरा कर उनमें से कई मर रहे थे। उनके टकराकर क्षत विक्षत होने के निशान शीशे पर स्पष्ट दिखायी दे रहे थे लेकिन बारिस की फुहारों एवं कार के वाइपर के चलते अगले ही क्षण वे निशान धुल भी रहे थे। कुछ ही आगे बढे़ होंगे कि कार के आगे कुछ दूरी पर हैड लाइट की रोशनी में तेजी से सड़क पार करता हुआ एक बघेरा दिखायी दिया। ‘‘ब्रेक लगाओ- डी.एस. ने ड्राईवर राजू को कहा, मगर जब तक वह कार धीमी करता बघेरा बगल के घने जंगल में लुप्त हो गया था। ‘‘क्या पहली बार देख रहे हो। ‘‘बॉस, देखा तो कई बार है और मैं तो यूँ भी जंगलों में खूब घूमा हूँ फिर भी जंगल में बार-बार वन्य जीवों और उनमें भी हिंसक जानवरों को बार-बार देखना एक रोमांच पैदा करता ही है- डी. एस. ने मेरे सवाल का जवाब दिया। इन क्षणों वह पीछे झाँककर गायब हो चुके बघेरे की असफल टोह ले रहे थे। कुछ देर धीमी हुई कार ने वापस रफ्तार पकड़ ली थी। ‘‘ डी.एस., एक बार मैंने रणथम्भौर नेशनल पार्क में पाँच टाइगर एक साथ देखे और वह भी कोई पौन घण्टे का अद्भुत दृश्‍य था। आई टेल यू, जोगी महल वाली झील के पास कच्चे रास्ते की बगल में एक पेयर अपने एक ही ‘कब के साथ वहाँ किसी ने देखा। थोड़ी देर में तो देशी-विदेशी सैलानियों की चार-पाँच खुली जीपें वहाँ पहुँच गयी जिनमें एक ग्रुप के साथ मैं भी था। करीब पन्द्रह मिनट बाद एक पेयर और वहाँ आकर बैठ गया। पार्क के गाइडों ने पर्यटकों को सावधान किया था कि वाहन से नीचे कोई न उतरे, आवाज न करे और फ्लेश के साथ फोटो न लें। ‘‘यह बात सही है कि खतरनाक समझा जाने वाला जानवर भी कोई ऐसी-वैसी हरकत नहीं करेगा जब तक कि उसे अपनी सुरक्षा का खतरा आशंकित न हो। आप लक्की रहे वरना कई बरसों से तो रणथम्भौर में भी ‘टाइगर स्पॉट बहुत मुश्किल से संभव बतायी जाती हैं। ‘‘वो पिछले सालों शिकारियों का जो गिरोह पकड़ा गया था न, उसने पन्द्रह टाइगरों का शिकार करना कबूल किया था। ‘‘हाँ, यह मेरी जानकारी में है मगर अब कितने टाइगर बताये जाते हैं। ‘‘इस साल का तो मुझे पता नहीं, लेकिन गत वर्ष पद्चिह्नों के आधार पर जो गणना हुई थी उसमें बाइस टाइगर बताये गये थे- मैंने डी. एस. को विश्‍वसनीय सूचनात्मक उत्तर दिया। ‘‘कभी अवसर मिला तो रणथम्भौर मैं भी जाऊँगा और यह पार्क आपके ही तो जिला में अवस्थित है, इसलिए चाहूँगा कि कार्यक्रम आपके ही साथ बने। ‘‘हाँ, यार डी. एस., मन-मिले मित्रों के साथ घूमने का आनन्द ही अलग है जैसे यह विजिट हमने तय की, मगर मेरे जैसे दोस्त का भरोसा मत करना, वह कब साथ चले कब न चले। इसकी और कोई संदेहजनक वजह नहीं, सिवाय इसके कि मैं जिस तरह की नौकरी में हूँ, उसमें साला छुट्टी मिलना बहुत मुश्किल है। हाँ, वैसे घूमने का मेरा मन बहुत करता है। मेरे यह कहते-कहते नन्हीं फुहारें मोटी बूँदों वाली बारिश में अचानक बदल गयी थी। ड्राईवर राजू ने कार का वाइपर तेज किया, फिर भी आगे बौछारों के कारण सड़क का दिखना बंद सा हो गया था। ‘‘साब, रूकना पड़ेगा- राजू ने कहा। ‘‘चलो, थोड़ा आगे बोर्डर चैक पोस्ट तक तो घसीट, तेरी इस उत्‍तर आधुनिक कार को। राजू पढालिखा तो है लेकिन ‘उत्‍तर आधुनिक शब्द का अर्थ शायद नहीं जानता। इसलिए उसने मेरी बात पर इतना ही कहा कि ‘‘देखता हूँ। डी. एस. इस शब्द पर हंसा और उसने प्रतिक्रिया व्यक्त की कि - ‘‘वाह ! बॉस, उत्‍तर आधुनिक कार से आदिवासियों के बीच। ‘‘तो क्या आप चाहते हैं कि हम बाबा आदम के जमाने में ही जीते रहें। ‘‘अरे, मैंने तो चुटकी ली थी। आप तो मीणा जी, शायद नाराज हो गये। ‘‘डी. एस., आप से तो नाराजगी का सवाल ही नहीं। आप तो आदिवासियों के सरोकारों से जुड़े हुए रहे हैं। आपकी इस चुटकी के बहाने मैं भद्र लोगों को यह कहना चाहता हूँ कि समाज के किसी भी घटक, विशेष रूप से आदिम समुदायों के संदर्भ में, आधुनिक तकनीकी सुविधाओं से किस बात का परहेज, आदिवासियों को लेकर बातें तो खूब की जाती हैं। शौकिया शोध, अध्ययन और एन. जी. ओज की गतिविधियां भी काफी चलती हैं लेकिन सही दृष्टिकोण से आदिवासियों के विकास को लेकर वाकई कितने लोग, संगठन और सरकार चिंतित है, यह गौर करने लायक चिंता का विषय है। अधिकांश बुद्धिजीवी भी चाहते हैं कि ये मूलवासी ‘जीता-जागता आदिम म्यूजियम के रूप में ही अस्तित्व में रहें। खैर, छोड़ें इस प्रसंग को, यह तो लम्बा विमर्ष है। बारिश का दौर थम गया। कार की फाटक के शीशे उतारे तो ठंडी हवा का सुखद अनुभव हुआ। अब तक ड्राइविंग करने में राजू को जो कठिनाई हो रही थी उससे भी राहत मिली। इस मार्ग पर देर शाम और रात में वाहनों का आवागमन बहुत कम होता है। गुजरात-राजस्थान सीमा आने से पहले ही बरसात रूक गयी थी इसलिए हमें बारिश की वजह से रूकने की जरूरत नहीं पड़ी। तेज गति से हमारी कार दौड़ रही थी। अब रास्ता भी सीधा था। यहाँ-वहाँ कुछेक मोड़ अवश्‍य आये। करीब पौने घण्टे में हम खैरवाड़ा पहुँच गये। डाक बंगला में हमारा इन्तजार हो रहा था। हमने रास्ते से सेलफोन द्वारा कमाण्डेंट भंवरसिंह को हमारे पहुँचने का संभावित समय बता दिया था। रात का खाना खेरवाड़ा के डाक बंगला में ही तय था। दिन भर के थके हुए थे और जठराग्नि भी भड़की हुई थी। फ्रेश होने के बाद थोड़ी देर गपशप हुई। खाने के वक्त दिनभर के अनुभव को हमने कमाण्डेंट भंवरसिंह के साथ बाँटा। ‘‘सर, आप पुलिस जैसे मकहमे में होकर भी साहित्य व इतिहास जैसे विषयों पर इतना काम कैसे कर लेते हैं, मुझे तो वाकई अचम्भा होता है। ‘‘भाई साहब भंवरंसिंह जी, यार अपन जब पुलिस में भर्ती होते हैं तो अच्छे-खासे पढे लिखे आते हैं और जब रिटायर होते हैं तो हममें से अधिकांश अनपढ होकर बाहर निकलते हैं। इसकी वजह है खुरपागिरी। आखिरी शब्द पर डी. एस. जोर से हँसा और फिर वह बोला- ‘‘बॉस, यह खुरपागिरी क्या होता है। ‘‘ड्राय रेजीमेंटेशन, जिसमें अक्ल से काम बहुत कम लिया जाता है और हर वक्त ‘यस सर की भावना से शेष दुनियादारी से अलग-थलग रहकर काम करते चले जाना होता है। और समझना है तो ट्रेनिंग का पहला सबक सुनाता हूँ जो हमारे इन्सट्रक्टर शिवपालसिंह ने हमें दिया था। उन्हीं के शब्दों में - ‘ ऐ बात थे सभी आर. पी. एस. साहबान कान खोलकर सुण ल्यों क ए पुलिस रो बेड़ो घणो पुराणो है अर भोत मोकड़ो बी। थम में भोत सारा तो कोलेज्याँ सू अबी अबी निकड़ अर आया हो, अर दो-चार ने बठै ही मास्टरी करी है। जो थे बिचारो, के महकमा ने बलद देस्यां तो ए थारी भूल है। ओ महकमों तने सगड़ा ने बदल देस्यी। थे महकमां री परंपरा ने जाणो अर पाछी देखो अर आगी बढ़ो। बाद में हमारा पूरा बैच फुरसत में खूब हँसा था कि साला पीछे देखकर आगे कैसे बढा जा सकता है। आगे चलने के लिए तो आगे देखना होगा नहीं तो खड्डे में गिर पड़ोगे। अब तो खैर वो बात नहीं है। शिवपालसिंह आजादी के पहले अर्थात अंग्रेज कालीन और रजवाड़ी पुलिस के संस्कारों में पले हुए थे इसलिए यथास्थितिवादी पुलिस के पक्षधर थे। ‘‘तो क्या अब पुलिस की भूमिका यथास्थितिवादी नहीं है। डी. एस. ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। ‘‘देखिये डी. एस., कानून एवं व्यवस्था को बनाये रखना पुलिस का प्रमुख दायित्व है। इसके बिना विकास संभव नहीं। दूसरे, सामाजिक परिवर्तन से सम्बन्धित जो ‘लॉ है उसकी पालना करवाने के लिए पुलिस की जो भूमिका है वह निश्चित रूप से एक ‘केटेलिस्ट की भूमिका है। तीसरे, अब पुलिस अत्याधुनिक तकनीक और भविष्यगामी दृष्टि को अपना कर चलती है चाहे जनांदोलन हों या अपराध-जगत। कुल मिलाकर प्रजातान्त्रिक आधुनिक पुलिस। जो मैं कह रहा हूँ सवाल वह नहीं है। दिक्कत यह है कि पुलिस वालों में अधिकांश पुलिस के खोल से बाहर इन्टरेक्ट कम कर पाते हैं। इसलिए सीमित सोच के दायरे में नौकरी पूरी करते हैं और रिटायरमेंट के बाद अधिकांश पुलिस अधिकारी या कर्मचारी समाज में मिसफिट या अनफिट होते हैं। इसलिए पुलिस पर हुए सर्वेक्षणों से यह त्रासद निष्कर्ष निकले हैं कि पुलिसवालों की ‘पोस्ट रिटायरमेंट लाइफ अन्य की तुलना में कम होती है। मेरा कहने का मतलब है कि पुलिस कार्य की हजार व्यस्तताओं के रहते सफल पुलिस-कर्म के साथ साथ सार्थक जीवन के विषय में सोचते और कुछ करते रहना अत्यंत अनिवार्य है। मेरा मानना है कि बहुआयामी जीवन का पुलिस-कर्म एक हिस्सा है, तो भंवरसिंह जी आप तो यहाँ पदस्थापित हो और खूब फुरसत में भी। आप कुछ तो करो यहाँ बैठे-बैठे- डी.एस. की जिज्ञासा का समाधान करने के लिए मैंने अपनी बात कही जिसके आखिरी शब्द भंवरंसिंह की ओर मुखातिब हो उन्हें अभिप्रेरित करने के लिए थे। मेरी बात को उन दोनों ने गम्भीरता से सुना। मुझे भी संतोष मिला। काफी देर हो चुकी थी। गम्भीर विमर्ष अपनी जगह था लेकिन थकान और तज्जन्य नींद की आवश्‍यकता शरीर और मस्तिष्क दोनों के लिए अनिवार्य थी। सार्थक दिन गुजरा, इस सुखानुभूति के साथ खेरवाड़ा में रात गुजारी। अगले दिन अर्थात् तारीख 13 जुलाई को हम दोनों सहयात्री प्रातः मेवाड़ भील कोर परिसर गये। कमांडेट भंवरसिंह के यहाँ नाश्‍ता करने के बाद उपलब्ध अभिलेखों को देखा जिनके बारे में चित्‍तरिया रवाना होने से पहले मैं छावनी में कहकर गया था। एम.बी.सी. की फाइल संख्या 6/1892 में मेवाड़ भील कोर के कमाण्डेंटों, मेवाड़ के पालिटीकल एजेन्टस, रेजीडेण्ट्स, राजपूताना के हिली ट्रेक्स के पोलिटीकल सुपरिण्टेडेंट्स और ब्रिटिश सरकार के दिल्ली स्थित फॉरेन एण्ड पोलिटीकल डिपार्टमेंट के बीच हुए वर्ष 1892 से 1939 की अवधि के पत्राचार की प्रतियां उपलब्ध मिली। ये सभी पत्र एम.बी.सी. की प्रशासनिक व्यवस्थाओं, प्रषिक्षण, फौज के मूवमेंट और एम.बी.सी., द्वारा किये गये सराहनीय कार्यों की प्रशंसा आदि से ताल्लुक रखते हैं। पालचित्‍तरिया की घटना से सम्बन्धित कोई कागज कहीं नहीं मिला और न ही इस तरह का कोई संदर्भ। मुझे बताया गया कि सभी ऐतिहासिक दस्तावेज राष्ट्रीय अभिलेखागार, दिल्ली में भेज दिये गये थे। एक पत्रावली की कार्यालय टिप्पणी में इन अभिलेखों की प्रतियां प्राप्त करने के उद्देष्य से यहाँ के तत्कालीन कमांडेंट के द्वारा दिनांक 1११।0.1996 में किये गये दिल्ली-भ्रमण का विवरण अंकित है। इसी पत्रावली में ता. 4. ११..1996 को लिखा है कि उक्त दस्तावेज प्राप्त करने के लिए महानिदेश, राष्ट्रीय अभिलेखागार दिल्ली से पत्राचार करना उचित है। एक अन्य रिपोर्ट मिली जो एम.बी.सी. के ‘गौरवशाली इतिहास से सम्बन्ध रखती है। यह रिपोर्ट एम.बी.सी. के एक सौ अट्ठावनवीं वर्षगांठ अर्थात, ता. 1.1.1999 के समारोह के लिए तैयार की गयी थी। प्रासांगिक अंश निम्न प्रकार हैं- ‘‘ऐसा बाताया जाता है कि वर्ष 1921 में कोटड़ा में क्यार नामक गाँव में मोतीलाल तेजावत नाम का व्यक्ति रहता था। महाराणा एवं ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध बगावत के लिए भोमट के भीलों को उकसा रहा था। ऊँट पर सवार हो कर गाँव-गाँव घूमता और एक नारियल और दो आने भेंट के रूप में लेता हुआ लोगों को ‘भूमि भगवान की है, बताकर ब्रिटिश सरकार एवं महाराणा को लगान नहीं देने के लिए उकसाता था जिससे सरकार की आय में कमी आ गई। इस सम्बन्ध में कमांडेंट ने मालूम किया तो पता चला कि पाल चित्‍तरिया गाँव में हजारों भीलों को इकट्ठा कर सरकार के विरूद्ध भाषण कर बगावत कर रहा है। इस पर कमांडेंट एम.बी.सी. एक कम्पनी मय हथियार के पाल चित्‍तरिया पहुँचे एवं भीड़ को बिखर जाने व मोतीलाल तेजावत को सरेण्डर होने के लिए वार्निंग दी परन्तु इसका कोई असर नहीं होने पर घेरा डालकर फायर का आदेश दिया एवं कई लोग फायरिंग में मारे गये। सरगना मोतीलाल तेजावत मौका देखकर भाग गया जो काफी साल बाद सरकार के सामने सरण्डर हुआ। यह मेवाड़ भील कोर का मिलीटरी पुलिस बनने के बाद की दूसरी घटना हुई एवं इस इलाके में शांति हो गई। आदिवासी बलिदान की एक बड़ी घटना के बारे में यह टिप्पणी संकेत भर थी और कोई ऐतिहासिक दस्तावेज भी नहीं। मुझे आश्‍चर्य हुआ कि आजादी के बावन बरस बाद भी (तब तक जाने-पहचाने) एक स्वतन्त्रता संग्रामी नायक के बारे में अपमानजनक भाषा का उपयोग किया गया लेकिन ऐसा न किया गया होता तो एम.बी.सी. की शौर्यगाथा कैसे लिखी जाती। करीब ग्यारह बजे हम खेरवाड़ा से चल दिये। मुझे दरअसल इस यात्रा के दौरान मानगढ का भी एक चक्कर लगाना था इसलिए मानगढ़ होते हुए ता. 14 जुलाई को दोपहर तक हम उदयपुर पहुँचे। सीधे आदिवासी शोध संस्थान गये। लाइब्रेरियन श्री राकेश शर्मा ने हमें पूरा सहयोग किया। राजस्थान के इस आदिवासी अंचल में हुए ब्रिटिश एवं रियासत विरोधी आंदोलनों के विषय में संतोषजनक सामग्री उपलब्ध करवायी। राष्ट्रीय अभिलेखागार दिल्ली में उपलब्ध जिन दस्तावेजों का संदर्भ हमें खेरवाड़ा छावनी में मिला था, वे सभी दस्तावेज प्रतियों के रूप में संस्थान में मिल गये। ध्यानपूर्वक उन्हें देखा लेकिन पालचित्‍तरिया की घटना के विषय में कोई प्रामाणिक ऐतिहासिक दस्तावेज यहाँ भी उपलब्ध नहीं था। कुल मिलाकर वास्तविकता यह थी कि सभी घटनाओं को छिपाया जाता था इसलिए लिपिबद्ध साक्ष्य मिलते भी कहाँ। आदिवासी शोध संस्थान में शाम के आठ बज चुके थे। ‘‘शर्मा जी आपका आभार किन शब्दों में व्यक्त करूँ, मेरे पास शब्द नहीं है। आपने वास्तव में काफी सामग्री उपलब्ध करवायी है। यद्यपि पालचित्‍तरिया के विषय में कोई ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं मिला लेकिन मोतीलाल तेजावत के विषय में जो सामग्री मिली है वह मेरे लिए पर्याप्त है चूँकि उसमें पालचित्‍तरिया की घटना के पर्याप्त संदर्भ हैं चाहे वह आर. पी. व्यास की इतिहास-पुस्तक हो या प्रेमसिंह कांकरिया की मोतीलाल तेजावत वाला व्यक्तित्व हो या पेमाराम द्वारा संकलित सामग्री या पत्र-पत्रिकाओं में बाद में छपे आलेख या फिर ऐतिहासिक ग्रंथ वीर विनोद। ‘‘मीणा जी, मैं यहाँ बाइस वर्षों से काम कर रहा हूँ और मैंने मन लगाकर काम किया अन्यथा बुरा मत मानना, जितने भी डायरेक्टर यहाँ प्रशासनिक अधिकारियों की हैसियत से पदस्थापित रहे हैं उन्होंने कोई रूचि नहीं ली। यह मन की बात मैं बहुत जोखिम उठाकर आपसे कह रहा हूँ। ‘‘मैं समझ सकता हूँ शर्मा जी, लेकिन जो भी काम दिया जाये, आदमी को अपनी भूमिका दायित्व-बोध के साथ निभानी चाहिए, उससे आत्मसंतोष मिलता है। अच्छा अब हमें अनुमति दें आपका सारा दिन हमारे खाते में चला गया। घर में आपका इन्तजार हो रहा होगा। शर्माजी हमें संस्थान के बाहरी मुख्य गेट तक छोड़ने आये। हमने उनसे हाथ मिलाकर विदा ली। तीन दिन से डी. एस. मेरे साथ थे। आज दिन भर उदयपुर में होते हुए भी अपने परिवार से नहीं मिल पाये, हालाँकि फोन पर उन्होंने अपनी पत्नी से सम्पर्क कर लिया था। लेकिन उनके पास एक अच्छा बहाना था कि ‘‘मेरे दोस्त मीणा जी बार-बार थोड़े ही मिलते हैं और जो काम वे कर रहे हैं वह मेरी भी तो रूचि का है। यह भावना उनकी पत्नी के लिए भी संतोषजनक रही होगी, यह कहाँ तक सही है यह तो उनके घर जाने पर पता लगेगा। मैं यह बात मन ही मन सोचकर रह गया। ‘‘डी. एस. घर जाओगे या मेरे साथ शाम बिताओगे। ‘‘बॉस, एक बार तो घर जाने दो। ‘‘चलो ऐसा करते हैं आपके मकान पर होते हुए निकल जाता हूँ। अगर आपको इजाजत मिले तो मेरे साथ चले चलना अन्यथा ........... ‘‘मीणा जी यह ठीक रहेगा। आपकी मौजूदगी में मुझे डाँट भी नहीं पड़ेगी और यह शाम भी आपके साथ गुजारने की अनुमति भी मिल जायेगी। संस्थान से चलकर डी. एस. के घर पहुँचे। थोड़ी देर रूकने और एक-एक कप चाय पीने के बाद मैंने डी. एस. के साथ उनकी पत्नी से क्षमायाचना के साथ इजाजत मांगी कि ‘‘मैडम, आज आज डी. एस. मेरे खाते में हैं। सुबह तो मैं निकल ही जाऊँगा। ‘‘भाई साहब, सुबह हमारे यहाँ नाश्‍ता लिए बगैर नहीं जाओगे। फतेहसागर झील के चारों ओर बनी वृत्ताकार सड़क का आधा चक्कर लगाते हुए हम पुलिस रेस्ट हाउस जा रहे थे कि बायीं ओर तीर का संकेतक और ऊपर पट्ट पर लिखा था ‘शिल्प ग्राम। ‘‘यहाँ लोक संस्कृति के नाम पर आदिवासियों की नुमाइश होती है। - डी. एस. ने व्यंग्यात्मक लहजे में शिल्प ग्राम की ओर इशारा किया जिधर हल्की-फुल्की रोशनी दिखायी दे रही थी। ‘‘भाई, हमेशा ही ‘एण्टी एस्टेब्लिश मानसिकता नहीं रखनी चाहिए। यह तो मानना ही पड़ेगा कि कला एवं संस्कृति विभाग ने शिल्‍प ग्राम और क्षेत्रीय सांस्कृतिक केन्द्रों के माध्यम से लोक कलाओं को जीवित रखने का काम एक सीमा तक तो किया ही है ना। ‘‘बॉस, दुख तब होता है जब लोक कलाओं और विशेषकर आदिवासी संस्कृति को विरूपित कर शो-पीस के रूप में प्रदर्षित किया जाता है। आदिम संस्कृति के संरक्षकों के भौतिक विकास के बारे में गम्भीरता से नहीं सोचा जाता। यह सब दिखावा और छलावा है। ‘‘चलो, छोड़ो इस प्रसंग को। फिर कभी इस पर चर्चा करेंगे। लो रेस्ट हाउस आ गया। पुलिस के रेस्ट हाउस पहुँचते पहुँचते पौने नौ बज गये थे। आसमान में बादल छाये हुए थे। दिन में उदयपुर में ठीक सी बारिश हुई थी। मौसम सुहावना था। मंद-मंद नम हवा के झोंकों से पेड़ों की टहनियां हिल रही थी और मेरे मन के सागर में संतोष की लहरों का तांता लगा हुआ था। लहरें बहुत सधी हुईं एक के बाद एक नियत अंतराल बनाये रखते हुए। कैसी सुखानुभूति थी यह जो नरसंहारी घटना से हुए ‘साक्षात्कार की भूमि से उत्पन्न हुई थी। दलित-दमित-शोषित मानवता की चेतना राख में दबी चिंगारियों की तरह होती है जिसे तेज हवा का इंतजार रहता है फड़कने के लिए। विद्रोह और संघर्ष की यह अनवरत प्रक्रिया है जो आदिकाल से चली आयी है और जारी रहेगी सतायी हुई मानवता की मुक्ति के लिए, बस बलिदान इसकी अनिवार्य कीमत है जो चुकानी पड़ती है। पालचित्‍तरिया की घटना इसी क्रम की एक कड़ी है। खा-पीकर डी. एस. वहाँ से चला गया। दड़वाह-पालचित्‍तरिया-खेरवाड़ा छावनी-आदिवासी शोध संस्थान, उदयपुर तक की उलट-यात्रा के दौरान और पूर्व में प्राप्त जानकारी के आधार पर अब इस घटना का एक परिदृश्‍य मेरे मस्तिष्क पटल पर अंकित हो चुका था। इस परिदृश्‍य के केन्द्र में दिखायी दे रहा था वह महान् क्रांन्तिकारी नायक-मोतीलाल तेजावत जिसका जन्म 8 जुलाई, 1887 में उदयपुर स्टेट के कोलियारा ग्राम में एक ओसवाल परिवार में हुआ था। साधारण शिक्षा प्राप्त उस व्यक्ति को हिंदी, ऊर्दू एवं गुजराती भाषा का व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त था। उसने झाड़ोल ठिकाने में आठ वर्षों तक कामदार की हैसियत से कार्य किया। ठिकाने की सेवादारी के दौरान उसे आदिवासियों की दयनीय दशा का अनुभव हुआ। आदिवासियों को उनके दुखों के विरूद्ध जागृत करने के लिए उसने ‘एकी आन्दोलन की शुरूआत की। मोतीलाल ने घर-घर जाकर आदिवासियों के दुखः-दर्द को सुना। उनमें प्रचलित कुरीतियों यथा मद्यपान, गौवध, कन्या-विक्रय, जादू-टोना आदि को छोड़ने को प्रेरित किया। शिक्षा, सभ्य जीवन और अत्याचारों का विरोध आदिवासी जागृति के मूलमन्त्र थे जिनका उसने क्षेत्र में व्यापक प्रचार किया। वर्ष 1921 के आरम्भ में तेजावत ने ‘मेवाड़ पुकार के नाम से आदिवासियों की समस्याओं को लेकर 21 सूत्रीय मांगपत्र तैयार किया। इस मांगपत्र की खबर जैसे ही राज के कारिदों को मिली तो उन्होंने मोतीलाल के बारे में भ्रामक प्रचार किया और महाराणा उदयपुर को उसकी गलत तस्वीर पेश की। तब तक तेजावत मेवाड़ राज के लिए, विशेष रूप से भोमट क्षेत्र में चुनौती बनता जा रहा था। महाराणा ने उसे प्रतिनिधियों के साथ बुलाया और स्वंय मांगपत्र पर समझौता करने को बाध्य हुआ। इक्कीस मांगों में से अधिकांश मान ली गई। तीन प्रमुख मांगे अस्वीकार कर दी गई जो वनोपज, बैठ वेगार एवं सूअरों से सम्बन्धित थी। किसी भी आशंका से निडर होकर तेजावत ने महाराणा के सामने घोषणा की कि अस्वीकार की गई मांगों के सम्बन्ध में उनका संगठन राज्यादेशों की पालना नहीं करेगा। यह कहकर वह वार्तास्थल (उदयपुर का जगदीश मन्दिर) से चल दिया। किसी की हिम्मत नहीं हुई जो उस शख्स को रोकता। भोमट, खालसा और मादड़पट्टी के आदिवासियों ने तेजावत के कहे अनुसार राज्यादेशों का विरोध किया। इस समस्त क्षेत्र के आदिवासियों ने जागीरदारों को कर देना बंद कर दिया। जुलाई 1921 में महाराणा को इस आशंका से बेगार समाप्ति एवं भूमि कर में रियायत देने के आदेश प्रसारित करने पड़े कि आदिवासी आंदोलन उग्र रूप धारण न कर ले। इसके बावजूद तेजावत का आन्दोलन ठण्डा पड़ने की बजाय तेज होता गया। 31 दिसम्बर, 1921 को महाराणा ने एक आदेश जारी कर भोमट के कोटड़ा और खेरवाड़ा क्षेत्रों में पचास से अधिक आदिवासियों के एकत्रित होने पर रोक लगा दी और घोषणा की कि जो भी मोतीलाल तेजावत को गिरफ्तार करवाने में सहायता करेगा उसे 500 रूपये पुरस्कार के रूप में दिये जायेंगे। जनवरी 1922 में तेजावत ने गिरफ्तारी की आशंका से उदयपुर स्टेट छोड़कर अपनी आंदोलनात्मक गतिविधियां सिरोही रियासत में जाकर फैलाना आरम्भ कर दिया। उदयपुर के साथ-साथ सिरोही राज्य में भी तेजावत की गिरफ्तारी के आदेश प्रसारित होने पर वह वहाँ से निकल गया। तेजावत असानी से पकड़ में आने वाला क्रांतिकारी नहीं था। जंगली रास्तों की उसे अच्छी जानकारी थी और उसे शरण देने वालों की कमी इसलिए नहीं थी कि अब वह आदिवासियों का चिर-परिचित नायक बन चुका था। जैसा मुझे पाल चित्‍तरिया-पाल दड़वाह में सुरेश भाई ने बताया था उसके मुताबिक मोतीलाल तेजावत के नेतृत्व में विजयनगर रियासत के उस स्थल पर आठ से दस हजार आदिवासी एकत्रित हुए थे। मेवाड़ भील कोर के तत्कालीन कमांडेंट मेजर एच. जी. शटन की अगुवाई में ब्रिटिश एवं रियासती हथियारबंद फौजों ने उन्हें घेर लिया और बन्दूकों व मशीननगनों से अंधाधुध गोलियां दागी। आदिवासियों में भगदड़ मच गयी। वे मोर्चा भी नहीं संभाल पाये। यह घटना 7 मार्च, सन् 1922 की थी जिसमें हजार-बारह सौ आदिवासी शहीद हुए जिसकी पुष्टि राजस्थान सेवा संघ की रिपोर्ट करती है। दरअसल घटना स्थल पर बलिदान हुए आदिवासियों की संख्या उतनी नहीं थी जितनी कि घायल होने वाले और बाद में इलाज के अभाव में सेप्टिक होकर मरने वालों की थी। घटना-स्थल पर जिस स्मारक का उद्घाटन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किया वहाँ रोपे गये प्रस्तर-पट्ट की इबारत इस प्रकार है - ‘‘1922 में ब्रिटिश सम्राज्यवाद के विरूद्ध अपने हक की लड़ाई में जलियांवाला कांड से ज्यादा बड़ा कांड यहाँ हुआ जिसमें 1200 आदिवासी शहीद हुए। इस स्मारक का 22 मार्च, 2003 में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उद्घाटन किया। आदिवासी अमर रहें। उदयपुर में रात्रि विश्राम के बाद ता. 14 जुलाई को सुबह उदयपुर से रवाना होने से पहले डी. एस. पालीवाल के घर नाश्‍ता करते हुए मैंने उन्हें अमरीका के प्रख्यात उपन्यासकार हावर्ड फास्ट का यह उद्धरण सुनाया- ‘‘आने दो उन्हें हमको ढ़ूंढ़ते हुए। भेजने दो हमारे खिलाफ अपनी फौजें। फौज बकरी की तरह पहाड़ों पर नहीं चढ़ सकतीं, हम चढ़ सकते हैं। हर चट्टान के पीछे और हर दरख्त की शाखों में एक तीर छिपा हो। हर चोटी पर बड़े-बड़े पत्थर जमा रहें। हम कभी सामने से उनका मुकाबला नहीं करेंगे, कभी उन्हें रोकने की कोशिश नहीं करेंगे-लेकिन हम बराबर वार पर वार करते रहेंगे, करते रहेंगे, करते रहेंगे, यहां तक कि हमारे तीरों के डर से उनकी रात की नींद हराम हो जाएगी, फिर उनकी हिम्मत नहीं होगी कि किसी तंग दर्रे में घुस भी सकें, और फिर सारा जूड़िया उनके लिए एक बड़ा सा जाल बन जाएगा। लाने दो उन्हें अपनी फौजें हमारी धरती पर-हम तो पहाड़ों पर होंगे और फिर आने दो उन्हें पहाड़ों पर-हर चट्टान जाग उठेगी। फिरने दो उन्हें हमारी तलाश में, हम कुहरे की तरह फैल कर हवा में घुल जाऐंगे और जब वे अपनी फौज किसी दर्रे के बीच से निकालने की कोशिश करेंगे तो हम उनके टुकड़े-टुकड़े कर डालेंगे, जैसे सांप के किये जाते हैं। ......समाप्‍त.....

4 टिप्‍पणियां:

abhishek ने कहा…

मीणा साहब,,
बेहद उम्दा शोध, यात्रा वृतांत आदिवासी एवं सामान्य जनजीवन के साथ सामयिक टिप्पणियों के साथ..। पालचित्तरिया की उक्त घटना में बलिदान देने वालों को शत शत नमन। आपके प्रयास को साधुवाद। बलिदान स्थलों के बारे में आपकी राय सही हो सकती है कि दोनो ही स्थल घटना से जुड़े हों,, । एक गौरवमयी जानकारी के लिए आपका आभार।
सादर।

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने कहा…

इस शानदार आलेख के साथ आपने ब्लॉग की दुनिया में अपनी धमाकेदार उपस्थिति दर्ज़ की है. स्वागत, और यह उम्मीद कि आपकी रचनाशीलता से हिंदी ब्लॉग और समृद्ध होंगे.

सृजनगाथा ने कहा…

संयोग से www.srijangatha.com का आगामी अंक ब्लॉग पर साहित्य विशेषांक है । मैं आपकी यह रचना वहाँ ले रहा हूँ । आदिवासियों को उनकी संवेदना में देखने, महसूसने का अच्छा और आकर्षक अभिव्यक्ति हुई है यहाँ । बधाईयाँ ।

फारूक आफरीदी ने कहा…

Hariram Meena ka yeh blog hame aadiwasi jagat se seedha sakshatkaar karata hai.