सोमवार, 9 नवंबर 2009

मारवाड़

मारवाड़
मरू अंचल का कोना-कोना
सब ही उजाड़
अंधड़ दहाड़
मीलों-मीलों धरती उघाड़
यह धरती सहती
सूरज की तपती किरणों की मारधाड़
ढूहों के ढूह रेत के बस
कोई न पाड़
बहती रेता के लघु पहाड़

आक्षिजित फैलता सिंधु रेत का
भीमकाय अजगर से धोरे लोट-पोट
ज्यों भूरे सागर की लहरें
प्रति पल नूतन आकार धरें
पष्चिमी हवाओं के प्रहार
जीवन पर करते अट्टहास
श्रंृगारी ऋतुओं का मजाक

कोयल, मयूर
सावन, बसंत
बादल, शीतल समीर
नद, सर, निर्झर,
दूर्वादल कहीं न दूर-दूर
रेता के कण ही भूर-भूर
बिखरी-बिखरी
उजड़ी-सी दूरस्थ बस्तियाँ
लम्बे-लम्बे डग भरती
ऊँटों की ही तो मात्र कष्तियाँ
लहराती फसलें प्रष्न-चिह्न
धरती ही प्यासी
पीने को पानी भी बासी

गरमी में आग बरसती है
भू क्षण-क्षण कण-कण जलती है
दिन-रात धधकती धरती की
पीड़ा हरने
रातों की आँखों में देखो!
ओसों के आँसू झरते हैं
मरू-भू को तनिक तृप्त करने
अस्तित्व निछावर करते हैं
सर्दी भी देखो, दुखदायी
शूलों-सी चुभती हाड़-फोड़
कर रही ग्रीष्म से यहाँ होड़
सर्दी-गर्मी के ये तेवर
हैं मात्र शरण झूपों के घर
खाने में कहाँ विविध व्यंजन
बस मोठ, बाजरी बनी खाण
हैं कड़ी, साँगरी, केर अभावों में लगाण

कहते हैं-
लाखों वर्ष पूर्व
कोई युग में था सिंधु यहाँ
पर अब न नीर का बिन्दु यहाँ
वह सरस भूमि मरू-धरा बनी
किन अभिषापों की करनी ?

जीना दूभर-
फिर भी जीवन में जीवट है
श्रम-सम्बल जिजीविषा बनता
इस कारण भू वीरान नहीं
चाहे अनगिनत अभाव सही
फिर भी जीते हैं लोग यहाँ
लम्बे-लम्बे कद-काठी के
वन-जीव, वनस्पति दिखते हैं
ज्यों तपःपूत इस माटी के।

झुरमुट बन जीते सरकंडे
माथे पर छर्रों के झण्डे
भम्फोड़1 उग रहे धरा फाड़
जैसे लगते लघु वृक्ष ताड़
पीले-पीले
भूरे-भूरे

है उत्तरीय-सी हरियाली
कुछ बीच-बीच में लाली है
देखो तो-
छटा निराली है।
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1. छः इंच से दो फुट लम्बा मूसलनुमा एक रेगिस्तानी पौधा। सफेद-पीला-सा। अन्य रंग भी एक ही पौधे में होते हैं। ‘भूमि फोड़‘ से भम्फोड़ नाम पडा़ होगा। इसे मरगोजा भी कहते हैं।
काँकेड़ा, रोहिड़ा, सीणिया
कुंज करीलों के दिखते हैं
खींप, आँकड़ा, बुई, बोरड़ी
कीकर, कुमट्या, केरों के ही-
वृक्ष इस धरा पर मिलते हैं
कुछ विरले वृक्ष सरेस
कल्प-तरू बने खेजड़े
यहाँ काचरी और मतीरे-
के ही तो बस बिछे बेलड़े।

बकरी, भेड़ों के चलते रेवड़
लुढ़क-लुढ़क
ऊँटों ही ऊँटों की कतार
हैं वन-बिलाव, लोमड़, काले मृग, नील गाय
दिन-रात भटकते हैं सियार।

टहणों में भेड़ें
फोगों की गुच्छी
दोनों ही
गोल-मटोल
धवल-सी दिखती हैं
ऊँटों की भी लम्बी कतार
मटियाली, भूरी रेता के
भूरे धोरों में मिलती है।

यहाँ मरूधरा में
देखो !
भोले-भाले निग्र्रन्थ लोग
सहज, सरल, सीधे, सपाट
नव-संस्कृति का जिनमें न रोग
बकरी, भेड़ों, ऊँटों के रेवड़ लेकर देषाटन जाते
आषाढ़ मास वापस आते
इस सृजन मास में देख गगन
कुछ बचा बाजरी, मोठ बीज
धरती पर देते वे बिखेर
मन से कुछ आषाएँ उकेर
वर्षा ऋतु भटके मेघों से
कुछ बूँदें ही टपका जाती
उन ही के सम्बल से देखो !
ले प्राणषक्ति अंकुर फूटे
कुछ मोठ, बाजरी उग आती
दानी-सी प्रकृति द्रवित होती
वह भी तो देती बिना देर
कुछ फोग, साँगरी, बेर, केर

इससे भी आगे
कुछ तो है
तब ही
मरूस्थल में जीवन है
शायद मूमल की प्रीत यहाँ
ढोला-मारू के गीत यहाँ
अलगोजा दूर तरंगों में
बजता है चंग उमंगों में
दिन में स्वर्णिम धोरे हिलते
ले चन्द्र-किरण कण-कण खिलते
हैं लोक-देवता-
तेजा, गोगा, रामदेवरा
इनके मेले
लोगों के बहुरंगी रेले
इनसे भी कुछ ऊर्जा लेते
जीवन की नैया को खेते

इससे भी आगे जीवन में-
नृत्यों की रूनक-झुनक थिरकन
तन पर रेता की ही उबटन
परदेषी कुरजां की कलरव
रेता की भी भूरी मखमल
सर्दी में सूरज का सम्बल
कुछ गरमाता मरू के तन को
गर्मी में रातें कुछ ठण्डक दे
सहलाती जाती जीवन को

चाहे मनुष्य
या जीव-जगत
या
फैली प्रकृति मरूस्थल की
सब ही तो हैं संघर्षलीन
करते जीवन को
समय-हीन
अक्षुण्ण, अनवरत, अन्तहीन।

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